आचार्य जिनराजसूरि – प्रथम

आचार्य श्री जिनोदयसूरि के पट्टधर श्री जिनराजसूरि हुए। आपका दीक्षा नाम राजमेरु मुनि था।

सम्वत 1432 फाल्गुन कृष्ण 6 के दिन पाटण में, श्री लोकहिताचार्य ने गुरु आज्ञा अनुसार आपको आचार्य पद प्रदान कर श्री जिनोदयसूरि जी के पट्ट पर स्थापित किया। और आपका नाम आचार्य जिनराजसूरि रखा गया। बोथरा तेजपाल के सुपुत्र कडुआ व घरणा ने, उपाध्याय विनयप्रभ व महत्तरा जससमृद्धि आदि साधु-साध्वियों एवं विशाल संघ की उपस्थिति में बड़े समारोहपूर्वक पट्टोत्सव किया।

श्री जिनराजसूरि जी ने अनेक ज्ञानभण्डारों के संस्थापक श्री जिनभद्रसूरि जी को दीक्षित किया था। आपने अपने कर-कमलों से सुवर्णप्रभ, भुवनरत्न और सागरचंद्र इन तीन मनीषियों को आचार्य पद प्रदान किया। सम्वत 1444 में आपने राज्यवर्धन मुनि को दीक्षा प्रदान की।

पूज्यश्री ने सम्वत 1444 में चित्तौड़ गढ़ पर आदिनाथ प्रभु की मूर्ति प्रतिष्ठित की। श्री सागरचंद्र सूरि ने सम्वत 1459 में जिनराजसूरि के आदेश से जैसलमेर के श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय में जिनबिम्ब की स्थापना की।

श्री जिनराजसूरि जी सवा लाख श्लोक प्रमाण न्याय ग्रंथों के अध्येता थे। महोपाध्याय विनयसागर जी के अनुसार “श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम्” के रचेयता श्री जिनराजसूरि (प्रथम) ही प्रतीत होते हैं।

सम्वत 1461 में अनशन आराधना पूर्वक देलवाड़ा में आपका स्वर्गवास हुआ। देलवाड़ा के श्रावक नान्हक ने भक्तिवश आपकी मूर्ति बनवाकर श्री जिनवर्द्धनसूरि जी से प्रतिष्ठित करवाई, जो आज भी देलवाड़ा में विद्यमान है।


क्रमांक 20 – आचार्य जिनराजसूरि – प्रथम
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास

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