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खतरगच्छ की महिमा

जैन धर्म अहिंसा, नैतिकता, सत्य और अनेकांतवाद की शिक्षा देता है। कोई भी धर्म सदा एक सा बना रहे इसकी संभावना कम होती है। जब भी धर्म पर संकट आया है तब महापुरुषों ने धर्म रथ की बागडोर संभाली है।

महावीर का पंथ हमेशा आचार प्रधान रहा है। भगवान महावीर निर्वाण के लगभग १००० वर्ष पश्चात साध्वाचार में शिथिलता की महामारी ने जब जोर पकडा तब अनेक श्रमण अपने पथमार्ग से भटक गए और चैत्यवासी यति परंपरा का उद्भव हुआ। आचार और दर्शन का सम्यक्तया पालन करने वाले श्रमण गिनती के ही रह गए। ग्यारहवीं सदी में वर्धमान सुरीजी के नेतृत्व में बुद्धिसागरसुरीजी और जिनेश्वरसुरीजी ने सुविहित मार्ग-प्रचारक एक नया गण स्थापित किया जो खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुआ। दुर्लभ राजा की सभा में ‘खरा’ विरुद प्राप्त कर खरतरगच्छ के आविर्भावक बने।

खरतरगच्छ में हुए चार दादागुरुदेवों की योगिक शक्तियों को और उनके चम्तकारों को जैन-अजैन सभी जानते और मानते है। आचार्य जिनदत्तसुरीजी का अनेक राजाओं पर प्रभाव था। त्रिभुवनगिरी के राजा कुमारपाल और अजमेर के राजा अर्णोराज का नाम उल्लेखनीय है। दिल्ली के महाराज मदनपाल मणिधारी जिनचन्द्र सुरीजी के अनन्य भक्त थे। अजमेर नरेश पृथ्वीराज चौहान भी जिनपतिसूरीजी को बहुत मान देते थे। दिल्लीपति गयासुद्दीन बादशाह ने दादा कुशलगुरुदेव से प्रतिबोध प्राप्त किया था। बादशाह अकबर चतुर्थ दादा जिनचन्द्रसुरीजी के परम भक्त थे। अमारी घोषणा जैसी अहिंसा मूलक आज्ञाओं को देशभर में प्रचारित करवा कर खरतरगच्छ और जैन धर्म की प्रभावना की। खरतरगच्छ के आचार्यों ने लाखों को जैन बनाया और अनेक गोत्रों की स्थापना की। ओसवाल जाती का सर्वाधिक विस्तार खरतरगच्छ की ही देन है।

खरतरगच्छ में अनेक विद्वान् मुनि भगवंत हुए। विक्रम की सत्तरवीं – अट्ठारवीं सदी में खरतरगच्छ ने सर्वाधिक साहित्य का सर्जन किया। उद्धारणार्थ अष्टलक्षी ग्रन्थ में “राजा नो ददते सौख्यं” इस वाक्य के १० लाख २२ हज़ार ४२७ अर्थ प्रस्तुत है। विश्व साहित्य को ऐसे ग्रंथों पर गर्व है।

इस गच्छ में अनेको दानवीर और कर्मठ श्रावक हुए। बीकानेर राज्य के दिवान करमचंद बच्छावत और मुंबई के श्रेष्ठी मोतीशाह आदि ने शासन को देदीप्यमान किया।

खरतरगच्छ की महिमा अपार है और इसका वर्णन करना संभव नहीं है। जैन धर्म के इतिहास में खरतरगच्छ ने जो योगदान दिया वह अत्यंत गौरवपूर्ण है।