दादा गुरुदेव जिनदत्तसूरि

भगवान महावीर की धर्म-परंपरा को जीवित एवं विशुद्ध बनाये रखने के लिए समय समय पर अनेक अमृत-पुरुष हुए। उनमें आचार्य जिनदत्तसूरि जैसे नवयुग प्रवर्त्तक महापुरुष की गणना होती है। श्री जिनदत्तसूरि जैन धर्म और उसकी खरतरगच्छीय परंपरा के एक ऐसे सुदृढ़ स्तम्भ थे जिन्होंने अपने व्यक्तित्व, साधना और प्रकांड पांडित्य के बल पर समाज में जो श्रद्धा का स्थान प्राप्त किया वह आज भी अमर है।

विक्रम सम्वत 1132 में गुजरात की धोलका नगरी में हुँबड़ गोत्रीय मंत्री वाछिग सा और उनकी पत्नी वाहड देवी के यहां आपका जन्म हुआ। आप जब गर्भ में थे तब माता ने स्वप्न में निर्मल-चंद्र के दर्शन किये, जिससे आपका नाम सोमचन्द्र रखा गया। एक समय धोलका नगरी में धर्मदेव उपाध्याय की आज्ञा में रहनेवाली विदुषी साध्वियों का चातुर्मास था। बालक सोमचन्द्र अपनी माता के साथ धर्म कथा सुनने नित्य जाया करते थे। आपकी शुभ लक्षण युक्त तेजस्विता को देखकर गुरूवर्या ने वाहड देवी से पुत्र-रत्न को गुरु महाराज की सेवा में समर्पित करने की याचना की। धर्मानुरागी वाहड देवी अपने पुत्र को गुरु-समर्पित करने के लिए सहर्ष तैयार हो गयी।

सम्वत 1141 में 9 वर्ष की आयु में सभी सांसारिक बंधनो को तोड़कर आपने धर्मदेव उपाध्याय के हस्ते दीक्षा ग्रहण की। आपकी बड़ी दीक्षा अशोकचंद्राचार्य द्वारा हुई। नवदीक्षित सोमचन्द्र मुनि को साध्वाचार सम्बन्धी क्रियाकलाप सिखाने के लिए सर्वदेव गणि को सौंपा गया।

दीक्षा लेने के बाद पहले ही दिन सर्वदेव गणि सोमचन्द्र मुनि को लेकर बहिर्भूमिका के लिए गए। सोमचन्द्र मुनि ने रस्ते में चलते हुए अज्ञानतावश चने के पौधों को उखाड़ दिया। चूंकि यह साध्वाचार के विरुद्ध था इसलिए सर्वदेव गणि ने बाल मुनि को शिक्षा देने के हेतु से रजोहरण और मुखवस्त्रिका वापस मांगी और घर जाने को कहा। सोमचन्द्र मुनि ने अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय देते हुए तत्काल जवाब दिया कि – “आप पहले मेरे मस्तक की चोटी लौटा दीजिये तो मैं घर चला जाऊँगा”। उनका प्रत्युत्तर सुनकर गणि जी ने यह बात धर्मदेव उपाध्याय से कही। यह सुनकर उपाध्याय जी ने सोचा कि इन लक्षणों से जाना जा सकता है की सोमचन्द्र मुनि अवश्य ही योग्य होगा।

सोमचन्द्र मुनि में विनय-मिश्रित वाणी, तार्किक प्रतिभा और संयम के प्रति समर्पण आदि गुण बाल्य अवस्था से ही थे। आपने पाटण में विद्वानों से “लक्षण-पंजिका” आदि शास्त्रों का अध्ययन किया।   एक बार अध्यापक ने आपकी योग्यता की परीक्षा करने के लिए पूछा कि क्या यह अर्थ सही है – “वकार जिसमें न हो वह नवकार” सोमचन्द्र मुनि ने उत्तर दिया – “नवकरणं नवकारः अर्थात आत्म कल्याण के साधन रूप नव पद जिसमें है वह नवकार”

आपकी प्रज्ञा को देखकर अध्यापक ने “सुगंध युक्त कस्तूरि” की उपमा आपको दी। सैद्धांतिक शास्त्रों की वाचना आपने हरिसिंहाचार्य से ग्रहण की। हरिसिंहाचार्य ने सोमचन्द्र मुनि को अपनी मंत्र पुस्तिका एवं कपलिका (कंवलि पुठा) जिससे उन्होंने स्वयं विद्याभ्यास किया था दे दी। देवभद्राचार्य ने भी प्रसन्न होकर आपको कटाखरण (काष्ठ पट्टिका पर लिखने का एक उपकरण) दिया था, जिससे उन्होने महावीर-चरित्र आदि चार कथा शास्त्र काष्ठ की पट्टिका पर लिखे थे। सभी शास्त्रों में पारंगत होकर सोमचन्द्र गणि सर्वत्र विचरण करने लगे। आपके ज्ञान-ध्यान से प्रभावित होकर उपासक वर्ग अतीव आनंदित होते थे।

सम्वत 1167 में खरतरगच्छाधिपति जिनवल्लभसूरि का स्वर्गवास हुआ। कुछ समय पश्चात गच्छ के संचालक देवभद्राचार्य ने सोमचन्द्र गणि को चित्तौड़ बुलाया। आचार्य देवभद्रसूरि ने सोमचन्द्र गणि को बुलाकर कहा कि – “जिनवल्लभसूरि द्वारा प्रतिष्ठित श्री महावीरस्वामी के विधि-चैत्य में आगामी दिन जिनवल्लभसूरि के पाट पर हम आपको स्थापित करेंगे।” इस कथन को सुनकर सोमचन्द्र गणि ने निवेदन किया कि – “आपने कहा सो ठीक है पर कल के दिन स्थापना करने से योग ऐसा बनता है कि मैं अधिक दिन जीवित नहीं रह सकूंगा। इसलिए आज से सातवें दिन शनिवार को जो लगन है उसमें पाट पर बैठाया जाऊँगा तो मैं निर्भय हो कर सर्वत्र विचरण करूंगा और मेरे द्वारा चतुर्विध संघ की अधिकाधिक वृद्धि हो सकेगी।” निश्चित दिन आने पर विक्रम सम्वत 1169 में श्री जिनवल्लभसूरि के पाट पर सोमचन्द्र गणि स्थापित किये गए। और आपका नाम जिनदत्तसूरि रखा गया।

आचार्य पदवी के पश्चात श्री जिनदत्तसूरि ने “किस तरफ विहार किया जाय” यह निर्णय प्राप्त करने के लिए तीन उपवास कर देवगुरु का स्मरण किया। देवलोक से हरिसिंहाचार्य ने आकर कहा कि “आप मारवाड़ आदि की तरफ विहार करो”। देवयोग से मारवाड़ के कुछ श्रावक व्यापार के लिए वहां आये हुए थे। गुरुदेव के प्रवचन सुनकर बहुत प्रभावित हुए और उन्हें सदा के लिए अपना गुरु बनाया।

वहां से विहार कर जिनदत्तसूरि नागपुर (नागौर) पहुंचे। एक दिन वहां के मुख्य श्रेष्ठि धनदेव ने गुरुदेव से कहा कि अगर आप आयतन-अनायतन का विवाद छोड़ दें तो नागौर के सभी श्रावक आपके आज्ञाकारी बन जायेंगे। यह सुनकर सूरि ने कहा – “श्रावक गुरु के वचनानुसार चलें, किन्तु यह कहीं भी देखने में नहीं आया कि गुरु श्रावकों की आज्ञा का पालन करे। मुनिवरों ने कहा है कि अधिक परिवार वाला जगत में अवश्य ही पूज्य हो जाता है यह न समझना – पुत्र पौत्रों के अधिक परिवार को साथ रखती हुई सूकरी मैले को खाती है”। गुरु महाराज के यह वचन विवेकशील पुरुषों को बड़े अच्छे लगे।

नागौर से विहार कर गुरुदेव अजमेर पधारे। वहां के बाहड़देव मंदिर का चैत्यवासी आचार्य था। उनके द्वारा सूरिजी के प्रति अशिष्ट व्यवहार देखकर वहां के श्रावकों ने राजा अर्णोराज के पास नए मंदिर के लिए भूमि खंड की मांग की। राजा ने शहर से दक्षिण दिशा में रहे पहाड़ की भूमि जिन मंदिर के लिए दान दी। अर्णोराज गुरुदेव के दर्शन कर उनकी विद्वता से बहुत प्रभावित हुए। गुरुदेव ने अजमेर के ठाकुर आशाधर को उपदेश देते हुए कहा कि “आपको स्तम्भन, शत्रुंजय, गिरिनार के मन्दिरों के समान श्री पार्श्वनाथ स्वामी, श्री ऋषभदेव स्वामी तथा श्री नेमिनाथ स्वामी के मन्दिर बनवाने चाहिए। उन मन्दिरों के ऊपर अम्बिका देवी की छतरी और नीचे गणधर आदि के स्थान बनाने चाहिए। लक्ष्मी के सदुपयोग का यह अच्छा अवसर है। लक्ष्मी का सर्वदा स्थायी रहना बड़ा मुश्किल है”। आशाधर ठाकुर को इस प्रकार कर्त्तव्य का उपदेश देकर जिनदत्तसूरि ने शुभ शकुन देखकर वागड़ देश की ओर विहार किया

आचार्य जिनदत्तसूरि ने वागड़ देश की ओर विहार किया। वहां पर चैत्यवासी जयदेवाचार्य ने उनके सानिध्य में वसति-मार्ग अपनाया। वागड़ देश के ही चैत्यवासी मंत्रवादी जयदत्त मुनि, विमलचंद्र गणि आदि भी जिनदत्तसूरि से वसति-मार्ग में दीक्षित हुए।

रमल विद्या के प्रसिद्ध जानकार चैत्यवासी जिनप्रभाचार्य ने भी गुरुदेव के पास वसति-मार्ग अपनाने की सोची। परन्तु वसति-मार्ग के नियमों को तलवार की धार के समान कठिन जानकार वे थोड़े झिझक रहे थे। निर्णय करने के लिए उन्होंने रमल का पासा डालकर गणित किया जिसमें जिनदत्तसूरि का नाम आया। फिर एक बार पासा डालने पर भी जिनदत्तसूरि का ही नाम आया। जब वे तीसरी बार गणित करने लगे तो आकाश से एक अग्नि का गोला गिरा और आकाशवाणी हुई – “यदि तुम्हे शुद्ध धर्म मार्ग से प्रयोजन है तो क्यों बारम्बार गणित करते हो? इन्हीं को अपना गुरु मानकर धर्माचरण करो”। इस वाणी से प्रभावित होकर जिनप्रभाचार्य ने जिनदत्तसूरि के पास चारित्र सम्पदा ग्रहण की।

वागड़ देश के एक श्रावक को तुर्क लोग अपना भंडारी बनाने के उद्देश्य से पकड़ कर ले गए। उसके हाथ देखकर उन्होने सोचा कि यह अच्छा भंडारी साबित होगा। और उसे जंजीरों में जकड़कर क़ैद की कोठरी में डाल दिया। वहां पर उस श्रावक ने एक लाख नवकार मन्त्र का जाप किया। जिसके प्रभाव से सायंकाल जंजीर टूट गयी और वह भागकर किसी तरह अपने घर पहुंचा। इस घटना से श्रावक को वैराग्य हुआ और वह जिनदत्तसूरि के हस्ते दीक्षित होकर गुणचन्द्र गणि के नाम से जाने गए।

एक समय गुरुदेव ने रुद्रपल्ली की ओर विहार किया। रास्ते में एक गाँव का श्रावक जबरदस्त व्यंतर देव से पीड़ित था। गुरदेव ने देखा की यह व्यंतर मंत्र-तंत्र से साध्य नहीं हो सकता। आचार्य जिनदत्तसूरि ने “गणधर सप्ततिका” की रचना करके टिप्पण में लिखकर उसे दिया और कहा – “तुम अपनी दृष्टि और मन इसमें स्थिर रखो”। ऐसा करने से वह व्यंतर पहले दिन बीमार की शय्या तक पहुंचा, दूसरे दिन गृह द्वार तक और तीसरे दिन आया ही नहीं। वह पीड़ित श्रावक एकदम स्वस्थ हो गया। तत्पश्चात वहां से विहार कर गुरुदेव रुद्रपल्ली पहुंचे।

आचार्य जिनदत्तसूरि विहार कर के रुद्रपल्ली पहुंचे। वहां पर 120 श्रावक कुटुम्बों को जिन धर्म में स्थिर किया तथा पार्श्वनाथ स्वामी और ऋषभदेव स्वामी के मंदिरों की प्रतिष्ठा की। एक समय गुरुदेव उच्चा नगरी गए। मार्ग में जो विघ्नकारी भूत-प्रेत आदि मिले उनको भी आपने प्रतिबोध दिया।

क्रमशः आचार्यश्री त्रिभुवनगिरि पहुंचे और वहां के नरेश कुमारपाल यादव को सदुपदेश दिया। त्रिभुवनगिरि में जिनदत्तसूरि ने शांतिनाथ भगवान के मंदिर की प्रतिष्ठा की। वहां से विहार कर गुरुदेव उज्जैन पहुंचे। उज्जैन में व्याख्यान के समय आचार्य श्री को छलने श्राविकाओं के वेश में आयी हुई 64 योगिनियों को प्रतिबोधित किया।

विहार करते हुए जिनदत्तसूरि चित्तौड़ पधारे। नगर प्रवेश के समय विघ्न-प्रेमी लोगों ने अपशकुन करने के लिए काले सर्प को रस्सी से बाँध कर सूरिजी के सम्मुख ले आए। यह देखकर श्रावकगण दुखी हुए। तब ज्ञान के सूर्य जिनदत्तसूरि महाराज ने कहा कि – “आप लोग उदास क्यों हो गए? जैसे यह काला सर्प रस्सी से बंधा है वैसे ही द्वेष रखने वाले जंजीरों से बंधकर कारागार जायेंगे। अतः यह तो शुभ शकुन है।”

10 पूर्वधारी आचार्य वज्रस्वामी ने योग्य शिष्य के अभाव में अनेक विद्याओं से युक्त ग्रंथों को चित्तौड़ के वज्र स्तंभ में सुरक्षित रख दिया था। अनेक आचार्य उन ग्रंथों को प्राप्त करने में असफल रहे परन्तु दादा गुरुदेव जिनदत्तसूरि ने अपने ज्ञान, चारित्र और तपो बल से वह ग्रन्थ प्राप्त किये। जिससे सूरिजी को अष्ट सिद्धि में से सातवीं सिद्धि प्राप्त हुई।

दिव्य व्यक्तित्व के धणी प्रतिभाशाली आचार्य जिनदत्तसूरि ने धारापुरी, गणपद्र आदि अनेक स्थानों में महावीरस्वामी, पार्श्वनाथ, शांतिनाथ, अजितनाथ आदि तीर्थंकरों की प्रतिमा एवं मंदिरों की स्थापना की।

दादा जिनदत्तसूरि ने व्याघ्रपुर में एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ “चर्चरी” की रचना की और उसे विक्रमपुर भेजा। उसमें जिनमंदिर में किन क्रियाओं से जिनाज्ञा की अवज्ञा होती है और वे कैसे भव-भ्रमण को बढ़ा देती है उसका विवरण है। विक्रमपुर के प्रतिष्ठित श्रावक देवधर जो चैत्यवास परंपरा में श्रद्धा रखते थे उन्होंने उपाश्रय में जाकर वह ग्रन्थ फाड़ दिया। प्रशांतमूर्ति जिनदत्तसूरि ने पुनः उस ग्रन्थ को लिखकर विक्रमपुर भेजा। यह जानकार देवधर ने सोचा कि इस ग्रन्थ में जरूर कोई विशेषता है। चर्चरी ग्रन्थ को पढ़कर उसका जीवन-परिवर्तन हुआ। वह गुरुदेव के दर्शनार्थ नागौर पहुंचा और विक्रमपुर पधारने की विनंती की।

आचार्यश्री विक्रमपुर पधारे। उस समय विक्रमपुर में महामारी की भयानक व्याधि फैली हुई थी। यज्ञ-हवन आदि समस्त उपाय विफल गए। नगरवासियों ने गुरुदेव की शरण ली और उपाय करने की प्रार्थना की। करुणा के सागर गुरुदेव ने महाप्रभावक सप्त-स्मरण स्तोत्रों की रचना की जिसके प्रभाव से रोगों का शमन हुआ और सभी को अभयदान मिला। गुरुदेव की दिव्य-देशना से प्रभावित होकर माहेश्वरी आदि हज़ारों आत्माओं ने जैन धर्म अपनाया। उसी समय एक साथ 500 साधु एवं 700 साध्वियों ने भागवती दीक्षा ग्रहण की जो कि पिछले 1000 वर्षों की एक ऐतिहासिक घटना थी।

एक समय अम्बड नामक श्रावक के मन में जिज्ञासा हुई कि इस समय के युगप्रधान आचार्य कौन है? इसका समाधान करने के लिए उसने गिरनार पर्वत पर तीन दिन का उपवास किया। तपोबल से अम्बिका देवी प्रगट हुई। देवी ने श्रावक की हथेली पर अदृश्य रूप से प्रशस्ति रूप युगप्रधान नाम अंकित कर दिया और कहा कि जो इसे पढ़ पाये उसे युगप्रधान जानना। अम्बड श्रावक अनेक आचार्यों के पास घूमता हुआ अंत में पाटण पहुंचा। वहां पर जिनदत्तसूरि को अपना हाथ दिखाया। पूज्यश्री ने स्व-प्रशंसा जानकार हथेली पर वासक्षेप डाला और अक्षरों को प्रकट कर पास में बैठे शिष्य को पढ़ने के लिए निर्देश किया। तब शिष्य ने यह श्लोक पढ़कर सुनाया –

दासानुदासा इव सर्वदेवा, यदीय पादाब्जतले लुठन्ति मरुस्थली-कल्पतरुः स जीयात‌् युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः

गुरुदेव की महिमा अपरंपार थी। उनको युगप्रधान-पद किसी मानवी द्वारा नहीं बल्कि देवी द्वारा दिया गया था। उसी समय से खरतरगच्छ की अधिष्ठायिका के रूप में अम्बिका देवी प्रसिद्ध हुई।  

एक समय उज्जैन में धर्म की प्रभावना के लिए दादा गुरुदेव जिनदत्तसूरि ने साढ़े तीन करोड़ माया-बीज (ह्रींकार) का जाप प्रारम्भ किया। तब आपको विचलित करने के लिये 64 योगिनियां व्याख्यान सभा में श्राविका का रूप धारण करके आयी। गुरुदेव ने ज्ञान-बाल से यह बात जानकार 64 पट्टों की व्यवस्था प्रवचन में करवा दी। व्याख्यान के पश्चात जब वे उठने लगी तो हिल न सकी। तब उन्होने गुरुदेव से क्षमा मांगी और भविष्य में धर्म प्रचार में सहायता का वचन देते हुए 7 वरदान दिए।

  • आपके साधु प्रायः मुर्ख नहीं होंगे
  • साधु-साध्वी की सर्प काटने से मृत्यु नहीं होगी
  • खरतरगच्छवालों की वचन-सिद्धि होगी
  • अखंड ब्रह्मचारिणी साध्वी ऋतुमति न होगी
  • आपके नाम-स्मरण से बिजली नहीं पड़ेगी
  • आपका श्रावक प्रायः धनवान होगा
  • शाकिनी न छलेगी

एक बार अजमेर में जब गुरुदेव के सानिध्य में चौदस का प्रतिक्रमण चल रहा तब अचानक बिजलियाँ चमकने लगी। प्रतिक्रमण के चलते बिजली वहीँ गिर पड़ी। गुरुदेव ने स्तंभिनी विद्या के प्रभाव से उस बिजली को लकड़ी के पात्र में स्तंभित कर दिया। तब विद्युत अधिष्ठातृ देवी ने वरदान दिया की – “जो भी आपका स्मरण करेगा उन पर मैं कभी नहीं गिरूंगी”। आज भी बिजली चमकने पर गुरुदेव के नाम की दुहाई दी जाती है।

किसी समय गुरुदेव साधना के उद्देश्य से पंजाब में पांच नदियों के मध्य आसन लगाकर ध्यान मग्न हो गये। पाँचों नदियों का अधिष्ठायक पीर आपको विचलित करने आया लेकिन आप अपनी साधना में अडिग रहे। अंत में उसने हाथ जोड़कर गुरुदेव से क्षमा मांगी। इसी प्रकार बावन वीर भी आचार्य जिनदत्तसूरि के भक्त थे ऐसी सूचना प्राप्त होती है।

दादा जिनदत्तसूरि का जीवन साधना से देदीप्यमान था। चमत्कार करना आपका उद्देश्य नहीं था। किन्तु आपकी सहज सिद्धि के प्रभाव से अलौकिक घटनाओं ने चमत्कार का रूप धारण कर लिया। आपके जीवन में चमत्कार अनायास ही घटित हो जाते। इनसे प्रभावित होकर जन-मानस में जैन धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती।

गुजरात में सूरत नगर के श्रेस्ठी पुत्र को गुरुदेव ने मंत्र बल से ज्योति का संचार कर दृष्टि-दान दिया था। गुजरात के ही भरुच नगर में सुल्तान-पुत्र को सांप ने डस लिया था। अनेक प्रयत्नों के विफल होने पर अंत में उसे मृत घोषित कर दिया गया। गुरुदेव ने अपनी तपोमयी शक्ति द्वारा उसे सर्प-विष से मुक्त कर प्राणो का संचार किया और जैन धर्म की महिमा बढ़ाई। इसी प्रकार पश्चिम पंजाब में मुल्तान नगर के मूंधरा जाती के माहेश्वरी हाथीदान दीवान के पुत्र को भी सर्प ने काट लिया था। गुरुदेव ने मंत्रोच्चार से उसे स्वस्थ कर दिया। इस घटना से प्रभावित होकर दीवान ने जैन धर्म अंगीकार किया था।

एक बार जैन धर्म के बढ़ते प्रभाव को देखकर कुछ द्वेषी लोगों ने षड्यंत्र रचा और जैन मंदिर के आगे मृत गाय को रख दिया। तब वहां के श्रेस्ठी ने गुरुदेव को सारा वृतांत सुनाकर इससे जैन धर्म की निंदा होने की संभावना जताई। गुरुदेव ने परकाय-प्रवेशिनी विद्या द्वारा मृत गाय में जीव संचार कर गाय को शिवालय के पास भेज दिया। और गाय शिवालय के सामने जाकर गिर पड़ी। इस प्रकार षड्यंत्र रचने वालों की ही निंदा हुई और उन्होंने गुरुदेव से क्षमा याचना की।

दादा गुरुदेव जिनदत्तसूरि एक ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने विक्रमपुर, ओसियां, सिंधु प्रदेश आदि में विहार कर लाख से अधिक व्यक्तियों को जैन धर्मी बनाया तथा 52 गोत्रों की स्थापना की। जैन परंपरा में इतनी मात्रा में अजैन गृहस्थों को प्रतिबोध देकर जैन बनाने का कार्य किसी अन्य ने नहीं किया। श्रद्धालु भक्त आपको प्रथम दादा गुरुदेव के नाम से आज भी स्मरण करते हैं।

एक बार आचार्य जिनदत्तसूरि का मुल्तान नगर में धूम धाम से प्रवेश हुआ। तब एक अम्बड़ नामक ईर्ष्यालु श्रावक ने व्यंग्य कसा कि पाटण नगर में आपका ऐसा प्रवेश हो तो में आपका प्रभाव जानूंगा। विहार करते हुए गुरुदेव पाटण पधारे और उनका भव्य नगर प्रवेश हुआ। उसी समय अम्बड़ बड़ी दीन अवस्था में सर पर पोटली लिए हुए मिला और बड़ा लज्जित हुआ। अपने बैर को शांत करने के लिए उसने महाराज को विष-मिश्रित चीनी का जल दिया। आचार्य श्री के निर्देश से आभू भणशाली ने शीघ्र ही पालनपुर से निर्विष मुद्रिका मंगवाकर विष का प्रभाव दूर किया। अम्बड़ के इस दुष्कृत्य की सर्वत्र निंदा हुई और वह मरकर व्यंतर हुआ। तदनन्तर जिनदत्तसूरि ने अम्बड़ के व्यंतर उपद्रव को दूर किया।

किसी समय गुरुदेव नारनोल गये। वहां श्रीमाल श्रावक के दामाद का विवाह के समय निधन हो गया। लोगों ने वधु को चिता-प्रवेश के लिए आग्रह किया। इससे भयभीत हो कर वह गुरुदेव के चरणों में जा गिरी। गुरुदेव ने उसके पिता को समझाकर उसे दीक्षा प्रदान की। नवदीक्षित साध्वीजी ने गुरुदेव से पूछा कि मेरी कितनी शिष्यायें होंगी। आचार्यश्री ने कहा कि जितनी तुम्हारे सिर में जूँ है उतनी ही तुम्हारी शिष्यायें होंगी। उनके सिर से 700 जूँ निकली। आगे चलकर विक्रमपुर में उनकी 700 शिष्यायें हुई। और इस प्रकार आचार्य श्री की भविष्यवाणी सिद्ध हुई।

परवर्ती विद्वानों के अनुसार जिनदत्तसूरि ने प्रतिक्रमण में “अजितशांति स्तोत्र” पठन का हाथीसाह लूणिया नामक श्रावक को आदेश दिया। बोथरा गोत्रवान लोगों को “जय तीहूअण” और गणधर चोपड़ा गोत्रवान लोगों को “उपसर्गहर स्तोत्र” पढ़ने को कहा।

आचार्य श्री की ख्याति उस समय के शासक वर्ग में भी फैली हुई थी। अजमेर के राजा अर्णोराज, त्रिभुवनगिरि नरेश कुमारपाल यादव, चंदेरी के राजा खरहत्थ सिंह राठौर, लोद्रवपुर के भाटी राजा धर और राजधर, रत्नपुरी नरेश धनपाल, धारा नगरी के राजपूत राजा पृथ्वीधर के पुत्र जीवन और सच्चु आदि को जिनदत्तसूरि ने प्रतिबोधित किया था।

आचार्य जिनदत्तसूरि न केवल उच्च कोटि के साधक एवं नेतृत्व संपन्न महापुरुष थे, अपितु शुद्ध साहित्यकार भी थे। आपका साहित्य विद्वत-भोग्य और लोक-भोग्य है तथा भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी अध्ययन योग्य है। गुरुदेव की रचनाएँ संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भांषाओं में उपलब्ध है। संस्कृत तथा प्राकृत के महान विद्वान् होने पर भी सामान्य-जन के उपदेश हेतु आपने अनेक ग्रंथो की रचना उस समय की बोलचाल की भाषा अपभ्रंश में की थी।

स्वयं उच्च कोटि के विद्वान् एवं युगप्रवर्तक होते हुए भी आपकी विनम्रता आपके द्वारा रचित स्तुति-साहित्य में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। इनमें “गणधर-सार्धशतक” का स्थान बहुत ऊंचा है। यह कृति उपयोगिता और इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्व रखती है। भगवान् महावीर से लेकर जिनवल्लभसूरि तक के आचार्यों का गुणानुवाद इस कृति में किया गया है। “गणधर-सप्ततिका” स्तोत्र में गणधरों की स्तुति गई है। गुरुदेव का महापुरुषों के प्रति अपार आदर और श्रद्धाभाव इसके द्वारा व्यक्त होता है। “सुगुरु पारतंत्र्य” स्तोत्र में ‘सद्गुरु की आज्ञा का पालन ही सच्चा धर्म है’ इस बात का उपदेश है।

जिनदत्तसूरि के उपदेशिक-साहित्य का लक्ष्य जैन धर्म के सच्चे स्वरुप को समझाना, चैत्यवास का विरोध और मानव जीवन को उच्च स्तर पर स्थापित करना था। भटिंडा की एक श्राविका के सम्यक्त्व-मूलक कुछ प्रश्नो के उत्तर में सूरिजी ने “संदेह दोलावली” ग्रन्थ की रचना की। इससे पता चलता है कि उस समय की श्राविकाएँ कितनी उच्चतम उत्तरों की अधिकारिणी थीं। “चैत्यवंदन कुलक” में श्रावक-श्राविकाओं के दैनिक-कर्त्तव्य आदि का वर्णन है और इसलिए प्रत्येक गृहस्थ के लिए विशेष पठनीय है। “चर्चरी” ग्रन्थ में आचार्य जिनवल्लभसूरि की स्तुति के साथ साथ अविधि-मार्ग का खंडन एवं विधि-मार्ग की स्थापना का विस्तृत उल्लेख किया गया है।

गुरुदेव की कुछ अन्य महत्वपूर्ण रचनाएँ

  • अजितशांति स्तोत्र
  • सर्वाधिष्ठायी स्तोत्र
  • विघ्न-विनाशी स्तोत्र
  • महाप्रभावक स्तोत्र
  • सर्वजिन स्तोत्र
  • चक्रेश्वरी स्तोत्र
  • उपदेश कुलक
  • कालस्वरूप कुलक
  • उत्सूत्र पदोद्घाटन कुलक
  • उपदेश रसायन रास

गुरुदेव ने जीवन पर्यन्त अपने अद्भुत योगबल, तपोबल, ज्ञानबल से जिन शासन की उन्नति की। अपना अंतिम समय निकट जानकर अनशन व्रत धारण करके सब जीवों से क्षमा याचना कर आत्म-रमणता में लीन होकर 79 वर्ष की आयु पूर्ण कर सम्वत 1211 आषाढ़ सुदी 11 को जिनदत्तसूरि देवलोक सिधारे। अजमेर में आपके पट्ट्धर मणिधारी दादा जिनचन्द्रसूरि ने सम्वत 1211 में एक सुन्दर स्तूप का निर्माण करवाया। जिसका जीर्णोद्धार सम्वत 1235 में जिनपतिसूरि ने करवाया।

सूरिजी के अतिशय प्रताप से अजमेर में जहां अग्नि संस्कार किया गया वहां आपके पहनने के वस्त्र चद्दर चोलपट्टा और मुंहपती जले नहीं। आज भी इन सभी वस्त्रों के दर्शन जैसलमेर के जिनभद्रसूरि ज्ञानभंडार में किये जा सकते हैं।

एक समय गुरुदेव के परम भक्त किसी देव ने सीमंधर स्वामी से प्रश्न पूछा कि “हे प्रभु जिनदत्तसूरि मोक्ष कब जायेंगे”? उत्तर में प्रभु ने कहा “तुम्हारे गुरु जिनदत्तसूरि सौधर्म देवलोक के टक्कल नामक विमान में चार पल्योपम की आयुष्य वाले महर्द्धिक देव हुए हैं। वहां से च्यवकर महाविदेह में अवतरित होकर (एकावतारी होकर) शीघ्र मोक्ष में जायेंगे”।

अजमेर नरेश अर्णोराज द्वारा दी गयी भूमि पर विधि-चैत्य की प्रतिष्ठा जिनदत्तसूरि के हस्ते हुई थी। आक्रमणकारियों द्वारा उसे तोड़कर मस्जिद में बदल दिया गया और उसे आज “अढ़ाई दिन का झोपड़ा” के नाम से जाना जाता है। अजमेर में ही मदार नामक एक टेकरी है। उसके बारे में कहा जाता है कि यह आचार्य जिनदत्तसूरि की साधना भूमि थी। 70-80 वर्ष पहले तक यहां गुरुदेव के चरण चिन्ह विद्यमान थे। आपकी स्मृति रूप में छतरी, शाल और जल की टंकी आज भी वहां विद्यमान है।

“अनुभूति की आवाज़” पुस्तक में अध्यात्म योगी सहजानंदघनजी ने जिनदत्तसूरि के लोकोत्तर व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि गुरुदेव की सुविशुद्ध आत्मा में क्षायिक सम्यक्त्व बीज-कैवल्य विद्यमान है। एक परवर्ती पट्टावली के अनुसार जिनदत्तसूरि के व्याख्यानों को श्रवण करने के लिए देवों का आगमन भी होता था।

दादा जिनदत्तसूरि ने अपूर्व धर्म क्रांति जगायी थी। ज्ञान और क्रिया के साथ ही उनमें अद्भुत संघठन और निर्माण शक्ति थी। जैनत्व विस्तार के लिए आचार्य जिनदत्तसूरि युगों युगों तक धर्म-संघ के आदर्श बने रहेंगे। जिनदत्तसूरि का युग खरतरगच्छ के लिए स्वर्ण-युग सिद्ध हुआ। आपने खरतरगच्छ की सर्वाधिक संवृद्धि की। जिनदत्तसूरि अपने अलौकिक व्यक्तित्व एवं विशिष्ट गुणों के कारण जैन जगत में बड़े दादा गुरदेव के नाम से प्रसिद्द हुए। मनोवांछित पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के समान बड़े दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरि भक्तों के ह्रदय में बसे हुए हैं।  


क्रमांक 7 – दादा गुरुदेव जिनदत्तसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास  

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