आचार्य जिनरत्नसूरि
आचार्य जिनराजसूरि के पट्ट्धर श्री जिनरत्नसूरि जी हुए। सम्वत 1670 में मरुधर देश के सेरुणा ग्राम में लूणिया गोत्रीय तिलोकसी एवं माता तेजलदे के यहां आपका जन्म हुआ। जन्म नाम रूपचन्द था।
सेठ तिलोकसी के देहान्त के पश्चात वैराग्यवासित माता ने श्री जिनराजसूरि जी से बीकानेर में निवेदन किया कि मुझे मेरे दोनों पुत्रों के साथ दीक्षित करें। श्री जिनराजसूरि जी ने 16 वर्षीय बड़े भाई को माता के साथ दीक्षा प्रदान की। रूपचन्द, जो उस समय 8 वर्ष के थे, भावचारित्री-वैरागी के रूप में विमलकीर्ति गणि के पास विद्याध्ययन करने लगे।
जब आप 12 वर्ष के थे, तब एक बार जालौर में 5 घंटे तक धारा प्रवाह संस्कृत बोलते देखकर तपागच्छाधिपति श्री विजयदेवसूरि जी ने श्री जिनराजसूरि जी से कहा कि “ये आपके पाट के अत्यधिक योग्य होंगे”।
तदनन्तर उपाध्याय साधुसुन्दर जी ने पाटण में विराजित श्री जिनराजसूरि जी से वासक्षेप मंगाकर, 14 वर्ष की आयु में आपको जोधपुर में दीक्षित किया। मंत्री जसवंत भणसाली ने दीक्षोत्सव किया। दीक्षा के पश्चात् आपने कढ़ाई विगय का आजीवन त्याग कर दिया। आचार्य जिनराजसूरि जी ने आपको बड़ी दीक्षा देकर रत्नसोम नाम प्रसिद्ध किया।
आपकी योग्यता देखकर श्री जिनराजसूरि जी ने अहमदाबाद में आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया। सम्वत 1700 में पाटण में श्री जिनराजसरि जी ने अपना अंतिम समय निकट जानकर, अपने स्वर्गवास के 2 दिन पूर्व आपको पट्ट पर स्थापित कर स्वयं सूरिमंत्र देकर श्री जिनरत्नसूरि नाम प्रसिद्ध किया।
एक बार जब आप आगरा पधारे तब मानसिंह ने बेगम की आज्ञा प्राप्त कर सूरिजी का प्रवेशोत्सव बड़े समारोह पूर्वक कराया।
सम्वत 1711 में आगरा में अपना आयुष्य अल्प जान कर, अपने पट्ट पर हर्षलाभ जी को स्थापित कर आप अनशन पूर्वक स्वर्ग सिधारे। संघ ने दाहस्थल पर स्तूप का निर्माण कराया।