आचार्य जिनहंससूरि
श्री जिनसमुद्रसूरि जी के पट्ट पर गच्छनायक श्री जिनहंससूरि जी हुए। सम्वत 1524 में आपका जन्म हुआ था। सेत्रावा नामक ग्राम में चोपड़ा गोत्रीय साह मेघराज आपके पिता और श्री जिनसमुद्रसूरि जी की बहन कमला देवी माता थी। आपका जन्म नाम धनराज था।
सम्वत 1535 में 11 वर्ष की आयु में आपकी दीक्षा विक्रमपुर में हुई। आपका दीक्षा नाम धर्मरंग रखा गया। सम्वत 1555 में अहमदाबाद में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए।
तदनन्तर सम्वत 1556 में बीकानेर में बोहिथरा (बोथरा) गोत्रीय करमसी मंत्री ने पुनः विस्तार से आपका पद महोत्सव किया। उसी समय आचार्य शांतिसागर जी ने आपको सूरि मंत्र प्रदान किया। मंत्री करमसी ने पद महोत्सव में पीरोजी (उस समय की मुद्रा) लाख रुपया व्यय किया। पूज्यश्री ने वहीँ नेमिनाथ चैत्य में बिम्बों की प्रतिष्ठा करवायी।
श्री जिनहंससूरि जी सैद्धांतिक विद्वान् थे। आचारांग सूत्र जैन संस्कृति का प्राण है। बीकानेर में राव लूणकरण के राज्यकाल एवं मंत्रीश्वर कर्मसिंह के समय में, श्री जिनहंससूरि जी ने आचारंग सूत्र पर आचारांग दीपिका नामक वृत्ति की रचना की। आपकी प्रेरणा से पाटण के श्रीमाली जाती के मंत्री धनपति के परिवार ने पंचमांग श्री भगवती सूत्र पर वृत्ति लिखवाई।
जिनहंससूरि जी के शासनकाल में महोपाध्याय धवलचन्द्र एवं गजसार आदि अनेकों उच्च कोटि के विद्वान विद्यमान थे। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के टीकाकार महोपाध्याय पुण्यसागर आप ही के शिष्य थे। महोपाध्याय पुण्यसागर जी के शिष्य पद्मराज गणि भी उच्च कोटि के विद्वान थे, जिनके द्वारा निर्मित कई ग्रन्थ प्राप्त होते हैं।
एक समय श्रीसंघ की आग्रहपूर्ण विनंती स्वीकार कर श्री जिनहंससूरि जी आगरा पधारे। घोड़े, पालकी, बाजे, छत्र, चँवर आदि के आडम्बर से आपका प्रवेशोत्सव हुआ। श्राविकाएँ अपने मस्तक पर मंगल कलश धारण कर गुरुदेव को मोतियों से बधा रही थी। रजत मुद्रा (रुपयों) के साथ तांबूल (पान) दिये गये। इस उत्सव में गुरु भक्ति, संघ भक्ति आदि कार्य में दो लाख रुपये खर्च हुए थे।
सुल्तान सिकंदर लोदी हाथी पर सवार होकर अमीर, उमराव, वजीर आदि के साथ सामने आया। इस यशस्वी प्रवेशोत्सव से सुल्तान को बड़ा आश्चर्य हुआ। चुगलखोरों के बहकाने से सिकंदर लोदी ने श्री जिनहंससूरि जी को चमत्कार दिखाने के लिए आग्रह किया। क्योंकि उसे श्री जिनप्रभसूरि जी के चमत्कारों की बातें कर्ण गोचर थी। श्री जिनहंससूरि जी को दीवान-दरबार धवलपुर में ठहराया गया।
पूज्यश्री ने तपस्या और ध्यान प्रारम्भ किया। यथा-समय दादा जिनदत्तसूरि जी के प्रसाद और चौसठ योगिनियों के सान्निध्य से चमत्कार हुआ। सूरिजी ने दैवी शक्ति से सुल्तान को प्रभावित कर पाँच सौ बन्दी-जनों को कैद से छुड़ाया और अमारी घोषणा करवाई। तदनन्तर श्री जिनहंससूरि जी ने तीन नगरों में प्रतिष्ठाएँ की, और अनेकों संघपति प्रमुख पद पर स्थापित किये।
पाटण नगर में तीन दिन अनशन करके आप सम्वत 1582 में स्वर्गवासी हुए। सम्वत 1587 में श्री जिनमाणिक्यसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित श्री जिनहंससूरि जी के चरण जैसलमेर के श्री पार्श्वनाथ जिनालय में विराजमान है।