महोपाध्याय समयसुंदर

राजस्थान में कहावत है – समयसुंदर रा गीतड़ा, कुंभे राणे रा भींतड़ा।

अर्थात् जिस प्रकार महाराणा कुंभा द्वारा बनाये गए कुम्भलगढ़ किले की दीवार (विश्व की दूसरी सबसे लम्बी दीवार) का पार पाना अत्यंत कठिन है, उसी प्रकार महोपाध्याय समयसुंदर जी की समस्त रचनाओं का पता लगाना भी दुष्कर है।

महोपाध्याय समयसुंदर जी 17 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध जैन महाकवि थे। आपका जन्म पोरवाल ज्ञातिय पिता श्री रूपसिंह और माता लीलादेवी के यहाँ अनुमानतः संवत् 1610 में सांचौर में हुआ।

लघु वय में ही आपको दादा गुरुदेव जिनचन्द्रसूरि जी ने स्वहस्त से दीक्षित कर, गुरु सकलचंद्र गणि का शिष्य घोषित किया। आपका विद्याध्ययन वाचक महिमराज जी (आचार्य जिनसिंहसूरि) और उपाध्याय समयराज जी के सान्निध्य में हुआ। थोड़े ही समय में आपने विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन कर लिया और गीतार्थ विद्वान् हो गए। 

अनुमानतः संवत् 1640 माघ सुदि 5 के दिन जैसलमेर में दादा जिनचन्द्रसूरि जी ने आपको गणि पद से विभूषित किया। आपने संवत् 1644 में दादा जिनचन्द्रसूरि जी के सान्निध्य में निकले सोमजी-शिवजी के संघ में अहमदाबाद से शत्रुंजय की यात्रा की।

सम्वत 1647 में बादशाह अकबर की विनती स्वीकार कर, दादा जिनचन्द्रसूरि जी ने वाचक महिमराज जी को समयसुंदर गणि और अन्य ६ विद्वान् साधुओं के साथ गुजरात से लाहौर भेजा। लाहौर में इन मुनियों का बड़े समारोह के साथ स्वागत तथा अत्यधिक अभिनन्दन हुआ।

श्री समयसुन्दर जी द्वारा रचित अष्टलक्षी नामक एक कृति ही उनकी प्रखर विद्वता का परिचायक है। यह ग्रन्थ केवल भारतीय साहित्य का ही नहीं अपितु विश्व साहित्य का एक अद्वितीय रत्न है। इस अभूतपूर्व ग्रंथ में “राजानो ददते सौख्यं” – इस आठ अक्षर वाले वाक्य के प्रत्येक अक्षर के 1-1 लाख अर्थ कर कुल 10 लाख से अधिक अर्थ किए गए हैं। 

कहा जाता है कि किसी समय एक जैनेतर विद्वान् ने जैन आगमिक वाक्य – “एगस्स सुत्तस्स अणंतो अत्थो” अर्थात् “एक सूत्र के अनन्त अर्थ होते हैं” पर व्यंग्य किया था। यह बात समयसुन्दर जी को बुरी लगी। और इसके प्रत्युत्तर में ही आपने इस ग्रन्थ की रचना की, ताकि जैनागमिक उक्ति की सत्यता एवं सार्थकता को प्रमाणित किया जा सके। 

सम्वत 1649 श्रावण सुदि 13 के दिन लाहौर के निकट राजा रामदास की वाटिका में, बादशाह अकबर की उपस्थिति तथा विद्वानों की सभा में श्री समयसुन्दर जी ने अष्टलक्षी ग्रन्थ को पढ़कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। अकबर ने इस ग्रन्थ की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए “इसका सर्वत्र प्रचार हो” कहकर, अपने हाथ से ग्रंथ को ग्रहण कर उसे समयसुन्दर जी के हाथों में समर्पित किया। 

श्री समयसुंदर जी पर चतुर्थ दादा गुरुदेव जिनचन्द्रसूरि जी का अत्यधिक अनुग्रह था। सम्वत 1649 फाल्गुन सुदि 2 के दिन जब लाहौर में दादा जिनचन्द्रसूरि को युगप्रधान पद एवं महिमराज गणि को आचार्य पद दिया गया, तब दादा जिनचन्द्रसूरि जी ने अपने करकमलों से श्री समयसुन्दर जी को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया।

कविवर समयसुंदर जी ने मुख्यतया राजस्थान, गुजरात, सिंध, पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में विचरण किया। 

सम्वत 1669 में आपने सिन्ध के सिद्धपुर नगर में मखनूम मुहम्मद शेख काजी को अपनी वाणी से प्रभावित कर समग्र सिन्ध प्रान्त में गौमाता, पंचनदी के जलचर जीव एवं अन्य सामान्य जीवों की रक्षा के लिये अभयदान की उद्घोषणा करवाई।

सिन्ध प्रान्त में ही घटित आपके जीवन की एक घटना बहुत प्रसिद्ध है। एक बार आप श्रावक-संघ सहित उच्चनगर जाते समय, मार्ग में आई हुई पंचनदी को पार करने के लिए नौका में बैठे। जब नौका नदी के मध्य पहुँची, तब अचानक वर्षा शुरू हो गई और भयंकर तूफान आ गया। नौका डगमगाने लगी और हाहाकार मच गया। 

ऐसी विपदा में समयसुंदर जी ने अपने एकमात्र इष्ट श्री जिनकुशलसूरि जी का निश्चल भाव से ध्यान किया। फलस्वरूप कुशल गुरुदेव ने वहाँ प्रकट होकर संकट दूर किया। समयसुंदर जी स्वयं इस चमत्कारपूर्ण घटना का उल्लेख करते हुए कहते हैं

आयौ आयौ जी समरंता दादौ आयौ।

संकट देख सेवक कुं सद्गुरु देराउर तें धायो जी ।। 

दादा वरसे मेह नै रात अंधारी, वाय पिण सबलौ वायौ।

पंच नदी हम बइठे बेड़ी, दरिये हो चित्त डरायौ जी ।।

दादा उच्छ भणी पहुँचावण आयो, खरतर संघ सवायो।

समयसुन्दर कहे कुशल कुशल गुरु, परमानन्द सुख पायौ जी ।।

दादा गुरु इकतीसा में भी इस घटना का वर्णन आता है –

समयसुंदर की पचं नदी में , फट गई जहाज नई की छिन में

सम्वत 1671 के अंत या 1672 के प्रारम्भ में आपको उपाध्याय पद प्राप्त हुआ। आपने जैसलमेर के रावल भीमजी को बोध देकर नगर में हो रहे सांडों के वध को बंध करवाया था। श्री समयसुंदर जी ने ज्ञान-शिक्षा देकर मेड़ता तथा मंडोर (जोधपुर) के अधिपतियों को जैन शासन का सेवक बनाया था।

सम्वत 1675 में श्री समयसुंदर जी ने जालौर में दादा श्री जिनकुशलसूरि जी की चरण पादुकाएं प्रतिष्ठित की। सम्वत 1680 में आपको महोपाध्याय पद से अलंकृत किया गया।

सम्वत 1684 का चातुर्मास आपने बीकानेर के निकट लूणकरणसर में किया। यहां के जैन संघ में पाँच वर्षों से परस्पर मन-मुटाव चल रहा था। जिसे समाप्त करने के उद्देश्य से आपने सन्तोष छत्तीसी नामक रचना बनाकर व्याख्यान में सुनाई। इसमें आपको सफलता प्राप्त हुई और संघ में पुनः प्रेम स्थापित हो गया। 

जब तक प्रकृति दयावान है, तब तक ही हमारी सम्पन्नता है। हमारा अस्तित्व प्रकृति की कृपा पर निर्भर है। सम्वत 1687 में प्रकृति के भारी प्रकोप के कारण गुजरात में भयंकर दुष्काल पड़ा। सर्वत्र त्राहि-त्राहि होने लगी। ऐसे समय में सेठ शांतिदास आदि अनेक धर्मानुरागी श्रेष्ठियों ने अकाल-पीड़ितों की बहुत सहायता की। जिसकी अनुमोदना पूज्यश्री ने भी की।  

आहार न मिलने से मुनिजनों की बड़ी विचित्र स्थिति हो गयी। अनेक साधु काल-कलवित हो गए। इस भीषण दुष्काल ने मनुष्यों से कैसे कैसे पाप कराये इसका आँखों देखा हाल महोपाध्याय समयसुंदर जी ने सत्यासिया दुष्काल छत्तीसी में किया है। 

समयसुंदर जी दुष्काल में सतत संघर्ष करते रहे, लेकिन फिर भी इसकी मार से बच ना सके। अपने शिष्य समुदाय की रक्षा हेतु आपको भी अकरणीय कार्य करने पड़े। 

दुष्काल समाप्त होने पर आपने यह विचार किया कि उस काल-खंड में साध्वाचार के विपरीत आचरण हुआ है। अतः आगमिक कथन के अनुसार शुद्ध चरित्र को पुनः स्वीकार करना चाहिये। और इसी उद्देश्य से  सम्वत 1691 में महोपाध्याय समयसुंदर जी ने क्रियोद्धार कर साधु समाज के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया।

आचार्य जिनसागरसूरि से खरतरगच्छ की आचार्य शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। महोपाध्याय समयसुंदर जी भी अपने शिष्य वादी हर्षनन्दन के कारण आचार्य शाखा में सम्मिलित हुए। 

समयसुंदर जी ने अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्ष अहमदाबाद में ही व्यतीत किये। सम्वत 1703 चैत्र सुदि 13 के दिन, लगभग 90 वर्ष की आयु में अनशन-व्रत पूर्वक अहमदाबाद में हाजा पटेल की पोल के खरतरगच्छ उपाश्रय में पूज्यश्री का समाधी-मरण हुआ। आपके चरण जैसलमेर तथा नाल में प्रतिष्ठित है। 

यद्यपि समयसुन्दर जी खरतरगच्छ में अगाध श्रद्धा रखते थे, तथापि वे सम्प्रदायवाद के जाल से पूर्णतः मुक्त थे। आपकी उदारता एवं गुणग्राहकता के कारण अन्य गच्छों और सम्प्रदायों के प्रति भी आपके सम्बन्ध मधुर थे। सम्प्रदाय-भेद होते हुए भी अपनी एक रचना में तपागच्छीय हीरविजयसूरि जी को महत्त्व दिया था। आपने एक अन्य रचना में पार्श्वचन्द्रगच्छीय पुंजा ऋषि के तप-त्याग की मुक्त कण्ठ से अनुमोदना की।

कविवर समयसुंदर जी भारतीय साहित्य की महान् विभूति थे। आप एक उद्भट विद्वान् एवं प्रकाण्ड पाण्डित्य के साथ लेखनी के धनि थे। आपने प्राचीन हिंदी, राजस्थानी, गुजराती, सिंधी आदि भाषाओँ में साहित्य सर्जन किया। 

महोपाध्याय विनयसागर का अभिमत है कि कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य के पश्चात् प्रत्येक विषयों में मौलिक सर्जनकार एवं टीकाकार के रूप में विपुल साहित्य के निर्माता समयसुंदर जी के सिवाय शायद ही कोई हुआ है।

प्रसिद्द विचारक श्री चन्द्रप्रभ जी अपने शोधपूर्ण ग्रन्थ महोपाध्याय समयसुन्दर – व्यक्तित्व एवं कृतित्व में लिखते हैं कि श्री समयसुन्दर जी रचित विसंवाद शतक, विचार शतक, विशेष शतक जैसी महत्वपूर्ण कृतियों द्वारा उनके सैद्धान्तिक ज्ञान का गाम्भीर्य प्रकट होता है। 

डॉ. सत्यनारायण स्वामी ने लिखा है कि महाकवि समयसुंदर जी की कृतियाँ महान् हैं, पर उनसे भी अधिक महान है उनका भव्य व्यक्तित्व। आपकी रचनाओं से ज्ञात होता है कि आप स्वभाव से सरल, निरभिमानी, साम्प्रदायिक समभावी, क्रान्तिकारी, लोकप्रिय प्रवचनकार एवं जनकवि थे।

महोपाध्याय समयसुन्दर जी के वादी हर्षनन्दन, मेघविजय, महिमासमुद्र सहित 42 शिष्य थे। वादी हर्षनन्दन जी ने जैन धर्म के प्रचार में प्रबल पुरुषार्थ किया और अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का निर्माण किया। 

समयसुन्दर जी के समग्र साहित्य का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि उनका ज्ञान बहुविध था। व्याकरण, साहित्य, भाषा-शास्त्र, छन्द, न्याय, ज्योतिष, विधि-विधान, सिद्धान्त, इतिहास, आगम इत्यादि विविध विषयों का उन्हें विपुल ज्ञान था। वे शास्त्र-सिद्धान्तों के तो ज्ञाता थे ही, साथ ही साथ उन्हें लोक व्यवहारिक ज्ञान भी था। एक व्यक्तित्व में इतने विस्तृत ज्ञान का होना वास्तव में विलक्षण और आश्चर्यजनक बात है। 

महोपाध्याय समयसुन्दर जी का साहित्य एक सागर की भाँती है जिसका पार पाना कठिन है। समाचारी-शतक ग्रन्थ में समयसुन्दर जी ने आचार सम्बन्धी 200 विवादास्पद प्रश्नों का समाधान करते हुए खरतरगच्छ की परम्परा की आगम-सम्मतता सिद्ध की है। पूज्यश्री की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना शत्रुंजय रास की रचना सम्वत 1682 में नागौर में हुई। खरतरगच्छ-पट्टावली आपके द्वारा रचित ऐतिहासिक ग्रन्थ है जिसकी रचना आपने सम्वत 1690 खम्भात में की। 

समयसुन्दर जी संगीत-शास्त्रज्ञ एवं ज्योतिषवेत्ता भी थे। आपको व्याकरण-विषयक गहनतम ज्ञान था। ‘अष्टलक्षी’ नामक कृति में आपने जो अनेकार्थ किये हैं, वे सभी प्रायः व्याकरण-सम्बन्धी नियमों पर आधारित हैं। 

समयसुन्दर जी के व्यक्तित्व की महत्ता इसी से सिद्ध हो जाती है कि समकालीन कविराज ऋषभदास ने सम्वत 1670 में रचित ‘कुमारपाल रास’ में आपके ख्याति को स्पष्ट कहा है

सुसाधु हंस समयोसुरचन्द, शीतलवचन जिम शारदचन्द । 

ए कवि मोटा बुद्धि विशाल, ते आगलि हूँ मूरख बाल ॥

समयसुन्दर जी का हृदय श्रद्धा और भक्ति से अभिभूत था। आपके द्वारा कृत यह स्तवन आज भी लोकप्रिय है

आणी मनसुध आसता, देव जुहारूँ शाश्वता । 

पार्श्वनाथ मन वांछित पूर, चिंतामणि म्हारी चिंता चूर ॥

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