दादा गुरुदेव युगप्रधान जिनचंद्रसूरि

सवाई युगप्रधान भट्टारक, बादशाह अकबर व जहाँगीर प्रतिबोधक, श्री जिनमाणिक्यसूरि जी के पट्टधर, चतुर्थ दादा गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरि जी हुए। 

आप अपने चारित्र बल एवं लोकोत्तर प्रभाव से विधर्मी शासकों को प्रभावित कर जैन धर्म और तीर्थों की रक्षा करनेवाले महापुरुष थे। आपने धर्म क्रान्ति करके जैन संघ में आयी हुई विकृतियों को दूर किया। और हज़ारों मुमुक्षुओं को शुद्ध चारित्र मार्ग का पथिक बनाकर जिन-शासन की महान प्रभावना की। 

आपका जन्म जोधपुर के निकटवर्ती गाँव खेतसर में सम्वत 1595 चैत्र वदि 12 के दिन हुआ था। आपके पिता ओसवाल श्रेष्ठी, रीहड़ गोत्रीय श्रीवंत शाह थे और माता का नाम श्रिया देवी था। आपका बचपन का नाम सुल्तान कुमार था। बाल्यकाल में ही आप अनेक कलाओं में पारगामी हो गए। पूर्व जन्म के संस्कार वश आपका धर्म की और झुकाव अत्यधिक था। 

सम्वत 1604 में खरतरगच्छ नायक श्री जिनमाणिक्यसूरि जी के खेतसर पधारने पर, उनके उपदेशों से सुल्तान कुमार की वैराग्य भावना जागृत हुई। 9 वर्ष की आयु में श्री जिनमाणिक्यसूरि जी के पास बड़े ही उल्लासपूर्वक आपने संयम-मार्ग स्वीकार किया। गुरु महाराज ने आपका नाम सुमतिधीर रखा। 

प्रतिभा सम्पन्न और विलक्षण बुद्धिशाली होने से आपने अल्पकाल में ही 11 अंग आदि सकल शास्त्रों का अभ्यास कर वाद-विवाद, व्याख्यान-कला आदि में पारगामी होकर, गुरु महाराज के साथ देश-विदेश में विचरण करने लगे।

सम्वत 1612 में सुमतिधीर मुनि सहित 24 शिष्यों के साथ, गच्छनायक श्री जिनमाणिक्यसूरि जी देराउर से जैसलमेर की ओर विहार कर रहे थे। मार्ग में पिपासा परिषह उत्पन्न होने पर श्री जिनमाणिक्यसूरि जी अनशन स्वीकार कर स्वर्गवासी हुए। तत्पश्चात सुमतिधीर मुनि तथा अन्य शिष्य जैसलमेर पधारे। 

खरतरगच्छ की बेगड़ शाखा के प्रभावक आचार्य गुणप्रभसूरि जी की सम्मति से समस्त संघ ने सुमतिधीर मुनि को आचार्य पद के सर्वथा योग्य समझकर उन्हें इस पद पर स्थापित करने का निश्चय किया।  

जैसलमेर नरेश रावल मालदेव ने स्वयं आचार्य पद महोत्सव की तैयारियाँ की। श्री गुणप्रभसूरि जी ने भाद्रपद सुदि 9 के दिन श्री सुमतिधीर मुनि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर सूरि मन्त्र प्रदान किया। उस समय आपकी आयु 17 वर्ष की थी।

गच्छ परंपरा अनुसार आपका नाम श्री जिनचन्द्रसूरि प्रसिद्ध हुआ। उसी रात्रि में गुरु महाराज श्री जिनमाणिक्यसूरि जी ने स्वप्न में दर्शन देकर समवसरण पुस्तिका में रहे हुए साम्नाय सूरिमन्त्र कल्प विधि निर्देश पत्र की ओर संकेत किया।

सूरिजी का सम्वत 1612 का चातुर्मास जैसलमेर में हुआ। आपके द्वारा इसी वर्ष में प्रतिष्ठित श्री जिनमाणिक्यसूरि जी के चरण, जैसलमेर के पार्श्वनाथ जिनालय में विद्यमान है।

उस समय जैन साधुओं में आचार शिथिलता का प्रवेश हो चुका था। जिसका परिहार कर क्रियोद्धार करने की भावना सभी गच्छ-नायकों में उत्पन्न हुई। 

मंत्रीश्वर संग्रामसिंह बच्छावत ने आचार्य श्री जिनचंद्रसूरि जी से बीकानेर पधारने की विनती भेजी। उनकी प्रबल प्रार्थना स्वीकार कर, सम्वत 1612 का जैसलमेर चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात सूरिजी बीकानेर पधारे। नगर का प्राचीन उपाश्रय शिथिलाचारी यतियों के द्वारा रोका हुआ था। इसलिए मंत्रीश्वर ने अपनी अश्वशाला में ही सूरिजी का सम्वत 1613 का चातुर्मास कराया। यह स्थान आजकल रांगड़ी चौक में बड़ा-उपाश्रय के नाम से प्रसिद्ध है।

श्री जिनचंद्रसूरि जी का युवक ह्रदय वैराग्य रस से ओतप्रोत था। शिथिलाचार को मिटाने के लिए क्रियोद्धार करने की प्रबल भावना उनके ह्रदय में जागृत हुई। शुद्ध चरित्र पालन करने से ही इष्ट ध्येय की सिद्धि हो सकती है। परिग्रह धारी रहनेवाला व्यक्ति कभी स्वतंत्र सत्योपदेश नहीं दे सकता। उसे सदैव स्वार्थ वश दबना पड़ता है। इत्यादि गहन चिंतन मनन करके, सूरिजी ने सम्वत 1614 मिति चैत्र वदी 7 को क्रियोद्धार किया। मंत्रीश्वर संग्रामसिंह का इस कार्य में पूर्ण सहयोग था। 

श्री जिनचंद्रसूरि जी ने यति जनों को आज्ञा दी कि जिन्हें शुद्ध साधू-मार्ग से प्रयोजन हो वे हमारे साथ रहें और जो लोग असमर्थ हों, वे वेश त्याग कर गृहस्थ बन जावें, क्योंकि साधु वेश में अनाचार अक्षम्य है। श्री जिनचन्द्रसूरि जी के प्रबल पुरुषार्थ से 300 यतियों में से 16 व्यक्ति सर्वथा परिग्रह त्यागकर आपके साथ हो गए। और संयम पालने में असमर्थ व्यक्तियों को मस्तक पर पगड़ी धारण करा के मत्थेरण गृहस्थ बनाया गया। इस प्रकार सूरिजी की क्रान्ति सफल हुई।

सम्वत 1614 का चातुर्मास सूरिजी ने बीकानेर में ही किया। उस समय गच्छ की सुव्यवस्था और साधुओं को उत्कृष्ट चारित्र पालने के लिए कई कठोर नियम बनाये। 

सम्वत 1615 का चातुर्मास आपने महेवा नगर में किया। श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रभु के सान्निध्य में तप-जप कर अपनी योग-शक्तियां विकसित की। सम्वत 1616 का चातुर्मास पूज्यश्री ने जैसलमेर में किया। चातुर्मास के पश्चात् आप गुजरात की राजधानी पाटण पधारे। सम्वत 1616 माघ सुदि 11 को बीकानेर से निकले हुए यात्री संघ ने, शत्रुंजय महा-तीर्थ की यात्रा से लौटते हुए पाटण में जंगम-तीर्थ सूरि महाराज की चरण वन्दना की।

पाटण खरतर-विरुद प्राप्ति का और वसतिवास प्रकाश का मूल स्थान था। सम्वत 1617 में सूरि महाराज वहाँ चातुर्मास के लिए विराजमान थे। इसी चातुर्मास में पूज्यश्री ने पौषधविधि प्रकरण पर 3554 श्लोक प्रमाण की टीका रची। जिससे आपकी प्रकाण्ड विद्वता का परिचय मिलता है। 

उस युग में तपागच्छ में उपाध्याय धर्मसागर जी एक विद्वत्ताभिमानी एवं उग्र-स्वभावी व्यक्ति हुए। जिन्होंने जैन समाज में पारस्परिक द्वेषभाव वृद्धि करने वाले कुछ ग्रन्थों की रचना की। नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि जी खरतरगच्छ में नहीं हुए तथा खरतरगच्छ की उत्पत्ति बाद में हुई – यह गलत प्ररूपणा उन्होंने की। 

जब उनकी यह दुष्प्रवृति प्रकाश में आयी तब श्री जिनचंद्रसूरि जी ने उसका प्रबल विरोध किया। और धर्मसागर उपाध्याय को पाटण में स्थित समस्त गच्छ के आचार्यों की उपस्थिति में कार्तिक सुदि 4 के दिन शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया। पर वे नहीं आए। दूसरी बार कार्तिक सुदि 7 को उन्हें फिर से बुलाया गया। 

पर उनके न आने पर, सभी गच्छ के गीतार्थों के समक्ष, 41 प्राचीन ग्रंथों के प्रमाणों सहित – श्री अभयदेवसूरि जी के खरतरगच्छ में होने का मत-पत्र लिखा गया। उस पत्र पर सभी गच्छ के आचार्यों ने हस्ताक्षर किये। और उत्सूत्र भाषी धर्मसागर जी को निह्नव प्रमाणित कर, जैन संघ से बहिष्कृत किया गया। 

इस प्रकार पाटण में सुविहित पताका फहरा कर सूरि महाराज खंभात पधारे। सम्वत 1618 का चातुर्मास करके, सम्वत 1619 में राजनगर-अहमदाबाद पधारे। यहाँ मंत्रीश्वर सारंगधर सत्यवादी के लाये हुए विद्वत्ताभिमानी भट्ट की समस्या पूर्ति कर उसे पराजित किया।

सम्वत 1622 में श्री जिनचन्द्रसूरि जी बीकानेर से जैसलमेर जाते हुए नागौर पधारे। वहां के शासक हसन कुली खान द्वारा सूरि महाराज का प्रवेश उत्सव कराया गया हो ऐसा उल्लेख विहार पत्र में मिलता है।

सम्वत 1623 का बीकानेर चातुर्मास पूर्ण कर, दादा जिनचंद्रसूरि जी ने खेतासर के मानसिंह जी चोपड़ा को दीक्षित किया। जो आगे चल कर आपके पट्टधर श्री जिनसिंहसूरि जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। सम्वत 1623 माघ वदी 5, सोमवार के दिन नागौर में दादा जिनकुशलसूरि जी के चरण पादुका प्रतिष्ठित कराये, जो आज भी नौ छतरियाँ दादावाड़ी में विद्यमान है।

सम्वत 1624 का चातुर्मास पूज्यश्री ने नाडोलाई में किया। एक बार नाडोलाई के पास मुगल सेना के पहुंचने पर, वहां की जनता लूटपाट के भय से नगर छोड़ कर भागने लगी। वहां के संघ ने मिलकर श्री जिनचंद्रसूरि जी को यह जानकारी दी। सूरि महाराज तो निर्भय थे। वे उपाश्रय में निश्चल ध्यान लगाकर बैठ गए। जिसके प्रभाव से मुगल सेना मार्ग भूल कर अन्यत्र चली गई। लोगों ने सूरिजी के प्रत्यक्ष चमत्कार को देखकर भक्ति भाव से उनकी स्तवना की।

सम्वत 1627 में पूज्यश्री ने शौरिपुर, चन्द्रवाड, हस्तिनापुर आदि तीर्थों की यात्रा की। आपका सम्वत 1628 का चातुर्मास आगरा एवं सम्वत 1629 का चातुर्मास रोहतक (हरियाणा) में हुआ। सम्वत 1630 में दादा गुरुदेव ने श्री अजितनाथ भगवान की धातु प्रतिमा प्रतिष्ठित की, जो बीकानेर के श्री ऋषभदेव भगवान् के मंदिर में विद्यमान है। सम्वत 1630 – 1632 के लगातार तीन चातुर्मास गुरुदेव ने बीकानेर में किये।

बीकानेर से विहार कर गुरुदेव प्राचीन तीर्थ फलौधी पधारे। वहां के पार्श्वनाथ भगवान् के मंदिर पर विपक्षियों ने द्वेष-वश ताले लगा दिए। दादा गुरुदेव ने तालों को अपने हाथ से स्पर्श किया और उनके प्रभाव से बिना चाबी के ही ताले खुल गए। और गुरुदेव ने तीर्थ दर्शन किये।

श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने सम्वत 1634 का चातुर्मास, कुशल गुरुदेव के स्वर्गवास से पवित्र, तीर्थ-रूप देराउर (सिंध) में किया। सम्वत 1641 के जालौर चातुर्मास में ऋषिमती-तपागच्छवालों के साथ श्री जिनचंद्रसूरि जा का शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें गुरुदेव विजयी हुए। सम्वत 1642 के पाटण चातुर्मास में भी श्री जिनचंद्रसूरि जा का तपागच्छवालों के साथ शास्त्रार्थ हुआ। और उसमें भी गुरुदेव ही विजयी हुए। 

सम्वत 1644 में खम्भात चातुर्मास कर पूज्यश्री अहमदाबाद पधारे। और संघपति सोमजी शाह के संघ सहित शत्रुंजय आदि तीर्थों की यात्रा की। सम्वत 1645 का चातुर्मास गुरुदेव ने सूरत में किया। 

सम्वत 1646 में श्री जिनचंद्रसूरि जी ने अहमदाबाद में विजया दशमी के दिन हाजा पटेल की पोल स्थित शिवासोमजी के शान्तिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा बड़ी धूमधाम से सम्पन्न कराई। इस मन्दिर में 31 पंक्तियों का शिलालेख लगा हुआ है एवं एक देहरी में संखवाल गोत्रीय श्रावकों का लेख है। 

एक दिन लाहौर में बादशाह अकबर ने राज्य सभा में उपस्थित विद्वानों से श्री जिनचंद्रसूरि जी के सद्गुण और विद्वता की प्रशंसा सुनी। और मंत्रीश्वर कर्मचंद्र बच्छावत को गुरुदेव को शीघ्र गुजरात से लाहौर पधारने की विनती करने के लिए कहा। मंत्रीश्वर कर्मचंद्र के समझाने पर अकबर ने कहा कि अगर गुरुदेव शीघ्र न आ सकें तो उनके शिष्यों को आमंत्रित कीजिये। 

शाही दूतों के साथ मंत्रीश्वर कर्मचंद्र का भेजा हुआ विनती पत्र मिलने पर गुरुदेव ने वाचक महिमराज, समयसुंदर जी आदि साधुओं को लाहौर भेज दिया। वाचक महिमराज सहित साधु मंडल के शीघ्र लाहौर पहुँचने पर और उनके दर्शन कर अकबर हर्षित हुआ। लेकिन श्री जिनचन्द्रसूरि जी के दर्शन करने के लिए उत्सुक अकबर ने फिर से मंत्रीश्वर कर्मचंद्र से कहकर गुरुदेव को आग्रहपूर्वक विनती पत्र भिजवाया।

शाही फरमान व विनती पत्र पाकर श्री जिनचंद्रसूरि जी खंभात से अहमदाबाद पधारे। और आषाढ़ सुदि 13 के दिन समस्त संघ के साथ विचार-विमर्श किया कि चातुर्मास में साधु विहार कैसे होगा। वहां पर और दो शाही फरमान व मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र का विनती पत्र मिला। तब सूरिजी ने विशेष धर्म प्रभावना और महान लाभ जानकर, संघ की सम्मति से लाहौर जाने के लिए प्रस्थान किया।

श्री जिनचंद्रसूरि जी के विहार के समाचार सुनकर, सिरोही के राव सुरताण ने उनको आमंत्रित करने के लिए, अपने प्रधान पुरुषों को जैन संघ के प्रमुखों के साथ भेजा। राव का आमंत्रण स्वीकार कर गुरुदेव सिरोही पधारे। वहां बड़े समारोह पूर्वक आपका प्रवेश हुआ। 

राव सुरताण ने आडम्बर पूर्वक उपाश्रय में आकर गुरुदेव से पर्युषण महापर्व सिरोही में करने की विनती की, जिसे सूरिजी ने स्वीकारा। गुरुदेव का उपदेश सुनकर, राव ने सिरोही राज्य में पूर्णिमा के दिन जीव-हिंसा बंद करवाई। महाराव सुरताण सिंह देवड़ा बड़े वीर राजा थे। उन्होंने अकबर की फ़ौज को दत्ताणी के ऐतिहासिक युद्ध में हराया था।

पर्युषण के पश्चात सूरिजी जालौर पधारे। वहां पर अकबर का पत्र आया की चातुर्मास पूरा करके शीघ्र ही लाहौर पधारे। अतएव गुरुदेव कार्तिक चौमासे तक जालौर ही बिराजे। तदनन्तर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए फलौधी पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा कर नागौर पधारे। वहाँ बीकानेर का संघ 300 पालखी और 400 वाहन सह गुरु-वन्दनार्थ आया।

इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुए श्री जिनचंद्रसूरि जी लाहौर से 40 कोस दूर पहुंचे। सूरिजी के शुभागमन का संदेश लेकर लाहौर जानेवाले व्यक्ति को मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र ने स्वर्ण-जिह्वा, कर-कंकणा आदि मूल्यवान वस्तुएँ देकर संतुष्ट किया।

सम्वत 1648 फाल्गुन सुदि 12 के दिन पुष्य योग में, श्री जिनचंद्रसूरि जी का उनके 31 साधुओं के साथ, लाहौर नगर में समारोह पूर्वक प्रवेश हुआ। तदनन्तर चतुर्विध संघ के साथ गुरुदेव राज महल पधारे। यह देख अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक अकबर स्वयं नीचे उतर कर आया और विनयपूर्वक हाथ पकड़कर सूरिजी को ड्यौढ़ी महल में लेकर गया।

गुरुदेव के प्रवचन सुनकर बादशाह अकबर बड़ा प्रभावित हुआ, और प्रतिदिन ड्यौढ़ी महल बुलाकर धर्मोपदेश सुनने लगा। एक बार बादशाह ने गुरु महाराज के समक्ष 100 स्वर्ण मुद्राएं भेंट रखी। जिसे अस्वीकार करने पर, गुरुदेव के निर्लोभी एवं अपरिग्रही जीवन से अकबर चकित और हर्षित हुआ। अकबर सूरिजी को “बड़े गुरु” के नाम से पुकारता था। 

एक बार शहज़ादा सलीम के मूल नक्षत्र में पुत्री उत्पन्न हुई। जिसे ज्योतिष्यों ने पिता के लिए अनिष्टकारी बतलाया। इस दोष के निवारण हेतु बादशाह के आदेश से, मंत्रीश्वर कर्मचंद्र ने उस समय के एक लाख रुपये सद्व्यय करके, वाचक महिमराज जी के द्वारा शांति-स्नात्र कराया। स्नात्र-जल को अकबर ने नेत्रों पर लगाया और अन्तःपुर में भी भेजा। मंगल-दीप व आरती के समय अकबर और सलीम ने उपस्थित रहकर 10,000 रुपये प्रभु-भक्ति में भेंट किये। 

एक समय नौरंग खान द्वारा द्वारिका के मन्दिरों के विनाश की वार्ता सुनकर, गुरुदेव ने अकबर को तीर्थों का महत्त्व समझाया और उनकी रक्षा का उपदेश दिया। बादशाह ने तत्काल एक फरमान लिखवाकर मंत्रीश्वर को दिया। जिसमें लिखा था – “आज से शत्रुंजयादि समस्त जैन तीर्थ मंत्री कर्मचंद्र के अधीन हैं।” अकबर ने गुजरात के सूबेदार आजम खान को जैन तीर्थों की रक्षा के लिए सख्त आदेश भेजा, जिससे शत्रुंजय तीर्थ पर म्लेच्छों के उपद्रव का निवारण हुआ।ये।

एक बार काश्मीर विजय के लिए जाते हुए अकबर ने श्री जिनचंद्रसूरि जी से आशीर्वाद प्राप्त किया। और 12 प्रदेशों में आषाढ़ सुदि 9 से पूर्णिमा तक जीवों को अभयदान देने के लिए फरमान लिख भेजे। इसके अनुकरण में अन्य कई राजाओं ने भी अपने अपने राज्यों में जीवों के अभयदान की उद्घोषणा कराई। 

अकबर ने पूज्यश्री से वाचक महिमराज, मुनि हर्शविषाल आदि को धर्म गोष्ठी एवं जीवदया प्रचार के लिए प्रवास में साथ भेजने की प्रार्थना की। जिसे गुरुदेव ने स्वीकारा। प्रवास के दौरान वाचक महिमराज जी के निर्मल चारित्र से अकबर बहुत प्रभावित हुआ। काश्मीर से लाहौर वापस लौटने पर अकबर ने गुरुदेव से निवेदन किया कि वाचक महिमराज जी को आचार्य पद से विभूषित करें। अकबर के आग्रह और वाचक जी की योग्यता देखकर गुरुदेव ने उन्हें आचार्य पद देना स्वीकार किया। 

फिर अकबर ने मंत्रीश्वर कर्मचंद्र से पूछा कि जैन शासन में विशिष्ट महत्त्व का पद कौनसा है? मंत्रीश्वर ने दादा जिनदत्तसूरिजी जी का वृत्तांत बताकर कहा की “युगप्रधान” पद सर्वोच्च है। तब अकबर ने श्री जिनचंद्रसूरि जी को इस पद के सर्वथा योग्य समझकर, उन्हें युगप्रधान घोषित किया। और जैन धर्म की विधि के अनुसार उत्सव करने की मंत्रीश्वर को आज्ञा दी। 

मंत्रीश्वर कर्मचंद्र ने स्वद्रव्य से अष्टाह्निका महोत्सव करवाया। उन्होंने समस्त साधर्मिकों के घर पूगीफल (सुपारी), एक सेर मिश्री और सुरंगी चुनड़ियें भेजी। फाल्गुन सुदि 2 के दिन गुरुदेव ने वाचक महिमराज जी को आचार्य पद प्रदान कर उनका नाम श्री जिनसिंहसूरि रखा। इस उत्सव के उपलक्ष में गुरुदेव के उपदेश से अकबर ने स्तम्भन पार्श्वनाथ तीर्थ के निकटवर्ती समुद्र में असंख्य जलचर जीवों को वर्षावधि अभयदान देने का फरमान जारी किया, और लाहौर में भी उस दिन जीव हिंसा का निषेध करवाया। 

मंत्रीश्वर कर्मचंद्र ने युगप्रधान पद स्थापना के इस अवसर पर सवा करोड़ रुपये का अभूतपूर्व दान दिया। बीकानेर नरेश रायसिंहजी भी सूरिजी के परम भक्त थे और इस उत्सव पर वे भी लाहौर में ही थे। जैन शासन की उन्नति करने में अद्वितीय यह महोत्सव, अवर्णनीय आनंद और उत्साह के साथ संपन्न हुआ।

सम्वत 1649 फाल्गुन सुदि 12 के दिन लाहौर में बीकानेर के राजा रायसिंहजी ने कितने ही ग्रन्थ श्री जिनचंद्रसूरि जी को समर्पित किये, जिन्हें बीकानेर ज्ञानभंडार में रखा गया। सम्वत 1650 का चातुर्मास गुरुदेव ने हापाणा में किया। एक बार रात्रि के समय उपाश्रय में चोर आये और ग्रन्थ आदि चुराकर जाने लगे। परन्तु गुरुदेव के योग-बल से चोर अंधे हो गए और ग्रन्थ वापस मिल गए। 

सूरि महाराज ने सम्वत 1651 का चातुर्मास लाहौर में किया जिससे अकबर को सतत धर्मोपदेश मिलता रहा। अनेक शिलालेखादि से प्रमाणित है कि दादा जिनचंद्रसूरि जी के उपदेश से अकबर ने शत्रुंजय तीर्थ को कर-मुक्त किया और कुल मिलाकर वर्ष में 6 महीने अपने राज्य में जीव-हिंसा निषिद्ध की तथा सर्वत्र गौ हत्या बन्द की। 

अकबर के ह्रदय में इतने गहरे दया-भाव होने का प्रबल कारण दादा जिनचंद्रसूरि जी और उनके शिष्य श्री जिनसिंहसूरि जी का धर्मोपदेश ही था। जहांगीर की आत्म-जीवनी तथा उस समय के पुर्तगाली पादरी पिनहेरो आदि के उल्लेखों से स्पष्ट है कि जैन दर्शन के अहिंसा-तत्व आदि के उपदेश से अकबर बड़ा दयालु हो गया था। बादशाह अकबर के दरबारी अबुल फज़ल इत्यादि पर भी सूरिजी का बड़ा प्रभाव था।

एक बार दादा जिनदत्तसूरि जी के चरित्र में से पंच नदी प्रसंग सुनकर, अकबर ने सूरिजी को पंच नदी साधना करने के लिए विनती की। तत्पश्चात् गुरुदेव ने संघ उन्नति जानकर यह साधना करने का निश्चय किया। इस हेतु से गुरुदेव मुलतान होते हुए चन्द्रवेलिपत्तन पधारे। 

सम्वत 1652 माघ सुदि 12 रविवार पुष्य नक्षत्र के दिन आयंबिल व अष्टम तप पूर्वक, नौका में बैठकर गुरुदेव पंच नदी के संगम स्थान पर पहुंचे। सूरिजी के निश्चल ध्यान से नौका स्तम्भित हो गई। पूज्यश्री के सूरिमंत्र जाप और सद्गुणों से आकृष्ट होकर पंच नदी के पांच पीर, माणिभद्र यक्ष, खोडिया क्षेत्रपाल आदि सेवा में उपस्थित हुए और शासन प्रभावना में सहायता करने का वचन दिया।

चन्द्रवेलिपत्तन से उच्चानगर होते हुए गुरुदेव देराउर आए। वहां से विहार कर श्री जिनमाणिक्यसूरि जी के निर्वाण स्तूप और नवहरपुर पार्श्वनाथ की यात्रा कर जैसलमेर पधारे। जैसलमेर नरेश रावल भीमजी और श्रीसंघ ने सूरि महाराज का प्रवेश उत्सव बड़े धूम-धाम से किया। 

एक समय बादशाह अकबर जब खानदेश के बुरहानपुर में थे तब उन्होंने सूरिजी को स्मरण किया।

श्री जिनचंद्रसूरि जी ने सम्वत 1653 माघ सुदि 10 के दिन अहमदाबाद में धन्ना सुतार की पोल, शामला की पोल और टेमला की पोल में बड़े समारोहपूर्वक जिनालयों की प्रतिष्ठा करवायी। 

सम्वत 1654 ज्येष्ठ सुदि 11 के दिन दादा जिनचंद्रसूरि जी ने शत्रुंजय महातीर्थ पर मोटी टूंक विमलवसही के सामने सभा मण्डप में दादा श्री जिनदत्तसूरि जी एवं श्री जिनकुशलसूरि जी की चरण पादुकाएँ प्रतिष्ठित की। यह चरण पादुकाएँ आज भी वहां पर विद्यमान है। 

सम्वत 1657 माघ सुदि 10 के दिन सिरोही में अष्टदल कमलाकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु की धातु मूर्ति की प्रतिष्ठा की। सम्वत 1661 मार्गशीर्ष वदि 5 को महेवा (नाकोड़ा जी) में कांकरिया कम्मा द्वारा निर्मित जिनालय की प्रतिष्ठा करवाई।

सम्वत 1662 चैत्र वदि 7 के दिन बीकानेर में नाहटों की गवाड़ स्थित ऋषभदेव भगवान् के शत्रुंज्यावतार जिनालय की प्रतिष्ठा करवाई। तथा सम्वत 1664 वैशाख सुदि 7 के दिन बीकानेर में ही श्री महावीर जिनालय की प्रतिष्ठा की।

दादा जिनचंद्रसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित अनेक पाषाण और धातु की मूर्तियां आज भी बीकानेर के जिनालयों में विद्यमान है। 

गुरुदेव का सम्वत 1664 का चातुर्मास लवेरा में हुआ। जोधपुर से राजा सूरसिंह वहां पर गुरु महाराज को वंदन करने आये। और अपने राज्य में सर्वत्र सूरिजी का वाजित्रों के साथ प्रवेशोत्सव हो, ऐसा आज्ञा पत्र जारी किया।

सम्वत 1668 का चातुर्मास दादा जिनचंद्रसूरि जी ने पाटण में किया। इस समय एक ऐसी घटना हुई जिससे गुरुदेव को वृद्धावस्था में भी शीघ्र विहार करके गुजरात से आगरा आना पड़ा। उस समय अकबर के पुत्र जहांगीर का शासन था। जहांगीर ने किसी यति के अनाचार से क्रोधित होकर, सभी साधुओं को आदेश दिया कि या तो वे गृहस्थ बन जाएं नहीं तो उसके राज्य से बाहर चले जाएं। इस आज्ञा से सर्वत्र खलबली मच गयी। 

जैन शासन में उस समय आपके जैसा और कोई प्रभावशाली नहीं था, जो बादशाह के पास जाकर उसकी कठोर आज्ञा रद्द करवा सके। ऐसी विकट परिस्थिति में आगरा संघ ने सूरिजी से इस संकट को दूर करने के लिए पधारने की विनंती की। गुरुदेव ने आगरा पहुंचकर बादशाह को समझाया और उस आदेश को रद्द करवाया। तदनन्तर नया फरमान निकलवाकर साधुओं का विहार खुलवाया। दादा जिनचंद्रसूरि जी का जहांगीर पर कितना गहरा प्रभाव था यह इस घटना स्पष्ट है।

सम्वत 1669 का चातुर्मास आपने आगरा में किया। इस चौमासे में सूरिजी ने जहाँगीर पर अलौकिक प्रभाव डालकर अनुपम शासन सेवा की। एक दिन काशी के पंडितों को विजय करनेवाला विद्वान भट्ट जहांगीर के दरबार में आया। जहांगीर के निवेदन से गुरुदेव ने भट्ट के साथ शास्त्रार्थ किया और उसे पराजित कर सवाई युगप्रधान भट्टारक नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। 

सम्वत 1670 का चातुर्मास गुरुदेव ने बिलाड़ा में किया। पर्युषण के पश्चात ज्ञानोपयोग से अपनी आयु-शेष जानकर आपने अनशन कर लिया। और गच्छ का भार श्री जिनसिंहसूरि जी को सौंप दिया। चार प्रहर अनशन पालकर सम्वत 1670 आश्विन वदि 2 के दिन आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी स्वर्ग तिथि दादा दूज के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन बिलाड़ा, गुजरात आदि स्थानों की दादावाडियों में मेला लगता है। 

आपकी अंत्येष्टि बाणगंगा के तट पर बड़े भारी समारोह के साथ की गयी। गुरुदेव के अतिशय से उनकी मुख वस्त्रिका लेश मात्र भी नहीं जली। अग्नि संस्कार के स्थान पर बिलाड़ा संघ ने सुन्दर स्तूप बनवाया। और गुरुदेव के चरणों की प्रतिष्ठा मार्गशीर्ष सुदि 10 के दिन की गयी।

चतुर्थ दादा गुरुदेव श्री जिनचंद्रसूरि जी महान शासन सेवा कर, ईशान देवलोक में उत्पन्न हुए।

पूज्यश्री ने अपने जीवनकाल में अनुमानतः 2000 दीक्षाएँ दी। आपके स्वयं के 95 शिष्य थे। गुरुदेव ने राजस्थान में 29, गुजरात में 20, पंजाब में 5 और दिल्ली-आगरा प्रदेशों में 5 चातुर्मास किये। आपकी शिष्य-परम्परा में कई प्रसिद्ध साहित्यकार विद्वान् हुए। श्री भंवरलालजी नाहटा के अनुसार श्री जिनचंद्रसूरि जी के समय में, सभी शाखाओं को मिलाकर समस्त खरतरगच्छ में साधु-साध्वियों की संख्या 5000 से कम नहीं थी।

आपका भक्त श्रावक समुदाय भी वर्णन करने योग्य है। तन-मन-धन से शासन की सेवा करनेवालों में बीकानेर के मंत्रीश्वर कर्मचंद्र, अहमदाबाद की कई पोलों में जिनमंदिर बनानेवाले संघपति सोमजी व शत्रुंजय पर्वत पर खरतर-वसही में विशाल चौमुख जिनालय के निर्माण करता उनके पुत्र रूपजी, गिरनारजी पर दादा साहब की देहरी बनानेवाला बोथरा परिवार, लौद्रवा तीर्थोद्धारक थाहरुसाह, महेवा में जिनालय निर्माता कांकरिया कमा, बीकानेर के लिगा गोत्रीय सतीदासजी, मेड़ता के चोपड़ा आसकरणजी आदि धर्म-प्रेमी श्रावक उल्लेखनीय है।

आपके योगबल से घटित चमत्कारिक घटनाओं में से – अकबर की सभा में जाते हुए भूगर्भ में बकरी के 3 जीव बताना, आकाश से क़ाज़ी की टोपी को ओघे द्वारा नीचे लाना, अमावस को पूर्णिमा में बदलना, चोरों का अंधा हो जाना आदि कई बातें सवर्त्र प्रसिद्द है।

दादा जिनचंद्रसूरि जी चारित्र धर्म में दृढ़ तथा प्रकांड विद्वान् थे। आपके निर्मल चारित्र के प्रभाव के परिणाम स्वरुप ही हज़ारों आत्माओं ने सर्व-विरति तथा देश-विरति व्रत ग्रहण किये, हज़ारों ग्रन्थ लिखवाकर भंडारों में स्थापित किये तथा सैंकड़ों नए जिनालयों व जिनबिंबों की प्रतिष्ठाएं हुई। आपके उत्कृष्ट संयम के तेजोमय प्रताप से ही बादशाह अकबर एवं जहांगीर आपसे प्रभावित हुए थे।

जिनशासन की रक्षा एवं उन्नति के लिए किये गए दादा गुरुदेव जिनचंद्रसूरि जी के कृत्यों की गौरव गाथा, आज भी निष्कम्प दीपशिखा के समान प्रकाशमान है।

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