आचार्य बुद्धिसागरसूरि

आचार्य बुद्धिसागरसूरि मध्य देश के निवासी थे। उनके पिताजी का नाम कृष्ण था। इनका बचपन का नाम श्रीपति था और वे जिनेश्वरसूरि के भाई थे। दोनों ही भाई बड़े प्रतिभावान थे। उन्होंने छोटी उम्र में ही ब्राह्मणीय परंपरा के अनेक धर्म शास्त्रों का अध्ययन किया।

एक बार दोनों भाई देशाटन हेतु घूमते घूमते धारा नगरी के श्रेष्ठी लक्ष्मीधर के यहां पहुंचे। दुर्भाग्यवश श्रेष्ठी के घर में आग लग जाने से दीवारों पर लिखा व्यापर का हिसाब नष्ट हो गया। दोनों भाइयों ने अपनी तीव्र स्मरण शक्ति से पुनः वह हिसाब श्रेष्ठी को ज्यों का त्यों बता दिया। श्रेष्ठी इनकी विद्वता से प्रभावित हुआ और उन्हें अत्याधिक सम्मान देने लगा।

श्रेष्ठी लक्ष्मीधर ने ही आचार्य वर्धमानसूरि से इनकी भेंट कराई। वर्धमानसूरि के तप-तेज से दोनों भाई अत्यंत प्रभावित हुए और उनसे दीक्षा ली। दीक्षा के पश्चात श्रीपति का नाम बुद्धिसागर रखा गया। इनकी प्रतिभा को देखकर वर्धमानसूरि ने आचार्य पदवी प्रदान की और वे बुद्धिसागरसूरि के नाम से प्रख्यात हुए।

अपने गुरु वर्धमानसूरि के नेतृत्व में व भ्राता जिनेश्वरसूरि के साथ बुद्धिसागरसूरि ने चैत्यवासीयों के शिथिलाचार को समाप्त करने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाये। पाटण नरेश दुर्लभराज बुद्धिसागरसूरि के चारित्र एवं ज्ञान से बहुत प्रभावित थे। इन युगल बंधुओं का राजा पर प्रभाव होने के कारण ही सुविहित मार्गी मुनियों का पाटण एवं समस्त गुजरात प्रदेश में आवागमन पुनः शुरू हुआ।

आचार्य बुद्धिसागरसूरि ने पाणिनी और हेमचन्द्र की तरह स्वतंत्र संस्कृत व्याकरण परिगुम्फित किया था। श्वेताम्बर परंपरा में जैन दर्शन का सर्वप्रथम ग्रन्थ जिनेश्वरसूरि रचित प्रमालक्ष्म-स्वोपज्ञवृतिसह है। इसी प्रकार श्वेताम्बर परंपरा में ही सर्वप्रथम व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ बुद्धिसागरसूरि द्वारा रचित बुद्धिसागरव्याकरण है। अन्य भी अनेक छोटे-बड़े व्याकरण ग्रन्थ उन्होंने लिखे थे। जैसे शब्द-लक्ष्म-लक्षण, मंत्री-मण्डन कृत उपसर्गमण्डन, सारस्वत-मण्डन आदि।

बुद्धिसागरसूरि एवं जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रारम्भ की हुई ज्ञान और चारित्र का पर्याय बनी यह गौरवमय यात्रा आज भी अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित है।  


क्रमांक 3 – आचार्य बुद्धिसागरसूरि

संकलन – सरला बोथरा

आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास    

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