आचार्य वर्धमानसूरि

लाखों को जैन बनानेवाला गच्छ, जिसमें चार दादा गुरुदेव जैसी महान विभूतियाँ हुई, उसकी शुरुआत कैसे हुई, आओ जानें।

खरतर परंपरा श्रृंखला का आरम्भ खरतरगच्छ के प्रवर्तक आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि के गुरु श्री वर्धमान सूरिजी के जीवन परिचय से करते हैं।

आचार्य श्री वर्धमानसूरि चैत्यवासी जिनचंद्राचार्य के शिष्य थे। चैत्यवासी साधु शिथिलाचारी होने के कारण प्राय: मंदिरों में ही उपदेश देते, गोचरी लेने नहीं जाते, मंदिर में ही भोजन करते और सुगंधित वस्त्र पहनते थे। चैत्य ही एक प्रकार से उनका निवास स्थान बन गया था, इसलिये वे चैत्यवासी कहे जाते थे।

शास्त्र पढ़ते समय जिन मंदिर-प्रतिमा की 84 आसतनाओं के बारे में जानकार वर्धमानसूरि को जैन धर्म के शुद्ध आचार का ज्ञान हुआ। आत्म कल्याण की भावना से उन्होंने दृढ़तापूर्वक चैत्यवास को त्याग दिया और आचार्य उद्योतनसूरि के शिष्य बनकर सुविहित मार्ग अपना लिया।

एक बार वर्धमानसूरि को जिज्ञासा हुई की सूरिमंत्र के अधिष्ठाता देव कौन हैं। इसे जानने के लिए उन्होंने तेले की तपस्या की। जिसके प्रभाव से धरणेन्द्र देव ने दर्शन दे कर बताया की सूरिमंत्र के अधिष्ठाता देव वे ही हैं और मंत्र के अलग अलग फल भी बताए। सूरिमंत्र सिद्ध होने के पश्चात वर्धमानसूरि स्फुराचार्य के नाम से भी प्रसिद्ध हुए।

वर्धमानसूरि को चैत्यावास कांटे की तरह चुभता था जिसे जड़ से उखाड़ने का उन्होनें बीड़ा उठाया। इन्होने वेद विद्या सम्पन्न श्रीधर और श्रीपति बंधुओं को अपना शिष्य बनाया जो जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के नाम से जाने गए।

वर्धमानसूरि के द्वारा रचित कुछ ग्रन्थ –

  • उपदेशपद टीका (विक्रम संवत 1055)
  • उपदेशमाला वृहद्वृत्ति
  • उपमितिभवप्रपंचा कथा समुच्चय  

गुजरात के दुर्लभराज की सभा में हुए शास्त्रार्थ के कुछ समय पश्चात इनका स्वर्गवास हुआ।  


क्रमांक 1 – आचार्य वर्धमानसूरि

संकलन – सरला बोथरा

आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास  

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