आचार्य जिनोदयसूरि

आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर श्री जिनोदयसूरि हुए। आपका जन्म सम्वत 1375 में पालनपुर में हुआ था। आपके पिता माल्हू गोत्रीय साह रुद्रपाल थे एवं माता का नाम धारल देवी था। आपका जन्म नाम समर कुमार था।

लगभग 8 वर्ष की आयु में बहन कील्हू के साथ, सम्वत 1382 में भीमपल्ली के श्री महावीर विधि चैत्य में दादा श्री जिनकुशलसूरि जी के हस्ते आपकी दीक्षा हुई। कुशल गुरुदेव ने आपका दीक्षा नाम सोमप्रभ रखा। सम्वत 1406 में जैसलमेर में श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने आपको वाचनाचार्य पद प्रदान किया।

सम्वत 1415 में स्तम्भ तीर्थ में अजितनाथ विधि-चैत्य में श्री तरुणप्रभाचार्य ने आपको आचार्य पदवी देकर श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर स्थापित किया। उल्लेखीनय है की श्री तरुणप्रभाचार्य ने चार-चार पट्टधर आचार्यों को खरतरगच्छ के पाट-सिंहासन पर स्थापित किया था।

एक बार मेवाड़ के राजमान्य श्रावक साधुराज रामदेव पैदल सिपाहियों सहित श्री जिनोदयसूरि जी के सम्मुख उनको लेने आये। पूज्यश्री ने वहां से विहार कर केलवाड़ा नगर में प्रवेश कर करेड़ा पार्श्वनाथ की वंदना की। आचार्यश्री का चातुर्मास वहां पर हुआ। तदनन्तर साधुराज रामदेव ने पांच दिन की अमारि घोषणा करवाई और 7-8 दिन तक निर्धन श्रावकों की सहायता की।

नरसागरपुर के निवासी मंत्रीश्वर वीरा ने म्लेच्छराज खान से यात्रा के लिए फरमान प्राप्त किया। और शत्रुंजय, गिरनार आदि तीर्थों का संघ विभिन्न देशों से आये हुए यात्रियों सहित पूज्यश्री की निश्रा में निकाला। श्री जिनोदयसूरि जी ने शत्रुंजय पहाड़ पर 68 मूर्तियां प्रतिष्ठित की तथा आपके सान्निध्य में मालारोपण महोत्सव एवं विमलाचल के विहारों में महा-ध्वजारोपण पूजा आदि हुए।

जिनोदयसूरि जी के हस्ते स्तम्भ तीर्थ में अजित जिन चैत्य, शत्रुंजय तीर्थ में पांच प्रतिष्ठाएं, नरसागरपुर में लकड़ी के जिनालय में ऋषभदेव भगवान आदि अनेक प्रतिष्ठाएं हुई। आपने अनेकों को संघपति, आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य, महत्तरा आदि पदों से अलंकृत किया। आपने 24 शिष्य एवं शिष्याओं को दीक्षित किया। आप पांच तिथियों को उपवास करते थे। आपकी प्रेरणा से 12 गांवों में अमारी घोषणा हुई थी।

श्री लोकहिताचार्य को पद योग्य अंतिम शिक्षा देकर सम्वत 1432 में आप पाटण नगर में स्वर्ग सिधारे। भक्त संघ द्वारा स्तूप प्रतिमा की स्थापना की गयी।


क्रमांक 19 – आचार्य जिनोदयसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास

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