आचार्य जिनवर्द्धनसूरि
श्री जिनवर्द्धनसूरि जी पन्द्रहवीं सदी के प्रकांड विद्वान एवं प्रभावक आचार्य थे। आपका जन्म मेवाड़ के कईलवाड़पुर नामक नगर में सम्वत 1436 में मंत्री शाखा के अर्जन श्रेष्ठी और माता लखमिणी देवी के यहां हुआ। आपका जन्म नाम रावण कुमार था।
आपकी दीक्षा लगभग 8 वर्ष की आयु में सम्वत 1444 में श्री जिनराजसूरि के हस्ते हुई। दीक्षा नाम राज्यवर्धन मुनि रखा गया। सम्वत 1461 में श्री जिनराजसूरि के स्वर्गवास के पश्चात उनकी आज्ञानुसार श्री सागरचन्द्रसूरि जी ने राज्यवर्धन मुनि को आचार्य पदवी देकर श्री जिनराजसूरि का पट्टधर घोषित किया। और श्री जिनवर्द्धनसूरि के नाम से प्रसिद्द किया।
एक बार उत्तर प्रदेश के जौनपुर के महत्तियाण शाखा के ठाकुर जिनदास की विनंती स्वीकार कर पूज्यश्री ने 15 मुनिवरों के साथ पाटण से विहार किया। जब आप सांचौर, जीरावला, आबू, देवलवाड़ा होते हुए ग्वालियर पधारे, तब आपके प्रवेशोत्सव में वहां के राजा भी सम्मिलित हुए।
वहां से विहार कर गुरुदेव हथकंति पधारे। राजा उदयराज ने वंदन कर गुरुदेव से कहा कि – “प्रभो! मेरे राज्य विस्तार और धन-धान्य में कोई कमी नहीं है, पर पुत्र के बिना मेरा राज्यादि सब कुछ शून्य है।” सूरिजी ने ध्यान बल से कहा – “यदि तुम मांस-मदिरा का त्याग करो तो 6 महीने में तुम्हारी आशा पूर्ण हो सकती है।” राजा ने गुरु महाराज का वचन मान्य किया और उसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हो गई।
पूज्यश्री हथकंति से विहार कर सिंहुड़ईपुर पधारे। वहां के राजा पृथ्वीचन्द्र ने बड़े भारी समारोह से प्रवेशोत्सव किया। यह देखकर कुछ ब्राह्मण-पंडित लोगों को ईर्ष्या हुई और वे शास्त्रार्थ के लिए आये। सात दिन तक शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें सूरि जी ने जीत का यश प्राप्त किया।
क्रमशः विहार करते हुए श्री जिनवर्द्धनसूरि जी जौनपुर पधारे। ठाकुर जिनदास ने मुनिसुव्रत स्वामी की जन्मभूमि राजगृही यात्रार्थ संघ निकालने की भावना व्यक्त की। सूरिजी ने 52 संघपति स्थापित किये और पहला तिलक संघपति जिनदास के हुआ। देवालय, 4000 पालकियाँ, घोड़े, बैल आदि सहित विशाल संघ राजगृही पहुंचा। वैभारगिरि पर मुनिसुव्रत स्वामी और विपुलगिरि पर पार्श्वनाथ स्वामी की वंदना की। तदनन्तर पावापुरी, नालंदा, कुंडग्राम, काकंदी, विहार नगर, चंद्रपुरी, वाराणसी, रत्नपुरी, कौशाम्बी आदि तीर्थों की यात्रा की। यात्रा पूर्ण कर ठाकुर जिनदास ने बिम्ब प्रतिष्ठा करवाई और 10-12 स्वर्णाक्षरी पोथियाँ-कल्पसूत्र लिखवाये। इस प्रकार श्री पूज्यश्री ने 5 वर्ष पर्यन्त पूर्व देश में विचरण कर धर्म प्रभावना की।
मेवाड़ के देवलवाड़ा में साह नाल्हा ने पूज्यश्री के द्वारा 2000 प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई। नाल्हा ने ही पूज्यश्री की निश्रा में शत्रुंजय एवं गिरनार का संघ निकाला। एक बार जब सूरिजी देवलवाड़ा पधारे तब मंत्रीश्वर चउण्डागर ने प्रवेशोत्सव किया। उन्होंने स्वर्णमय दंड-कलश युक्त भगवान् महावीर का जिनालय बनवाया।
जैसलमेर के महारावल लक्ष्मण श्री जिनवर्द्धनसूरि जी के परम भक्त थे। सम्वत 1473 में गुरुदेव ने जैसलमेर के लक्ष्मण-विहार मंदिर में प्रतिष्ठा की थी। आपने 136 मुनि, 53 साध्वियां, 3 उपाध्याय, 21 वाचनाचार्य और 12 प्रवर्तिनी पद प्रदान किये। आपने 700 संघपति स्थापित किये। 12 बड़ी-बड़ी प्रतिष्ठाएं करवाई। आपकी निश्रा में अनेक उपधान, मालारोपण, व्रतग्रहण आदि हुए।
श्री जिनवर्द्धनसूरि जी प्रकाण्ड विद्वान आचार्य थे। श्री कीर्तिरत्नसूरि एवं जयसागरोपाध्याय जैसे विद्वानों के आप शिक्षा-दीक्षा गुरु थे। सप्तपदार्थी टीका, वाग्भटालंकार टीका, चार प्रत्येकबुद्ध चरित्र, सत्यपुरमंडन महावीर स्तवन, पूर्वदेशीय चैत्यपरिपाटी आपकी उल्लेखनीय कृतियां है।
सम्वत 1474 में क्षेत्रपाल कृत उपद्रव के कारण श्री जिनवर्द्धनसूरि जी की शाखा अलग हुई और “पिप्पलक” नाम से प्रसिद्ध हुई। पाटण नगर में आयु शेष जानकर पूज्यश्री ने संलेखना की। सम्वत 1486 फाल्गुन सुदि 12 के दिन आपका स्वर्गवास हुआ। 50 वर्ष की अल्पायु में श्री जिनवर्द्धनसूरि जी ने बड़ी शासन प्रभावना की।
क्रमांक 21 – आचार्य जिनवर्द्धनसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास