आचार्य जिनभद्रसूरि

आचार्य श्री जिनराजसूरि जी के पट्टधर 15वीं शताब्दी के जगत्प्रसिद्ध, महान ग्रन्थ संरक्षक, अनेक ज्ञानभण्डारों के संस्थापक श्री जिनभद्रसूरि जी हुए। अनेक प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रंथों की बड़ी संख्या में प्रतिलिपि कराने, देश के विभिन्न नगरों में ग्रन्थ भंडारों की स्थापना कराने तथा सैंकड़ों की संख्या में जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराने में किसी भी गच्छ में ऐसा कोई भी मुनि या आचार्य नहीं हुआ जिसे इनके समकक्ष रखा जा सके।

आप मेवाड़ के देउलपुर (उदयपुर-देलवाड़ा) के समृद्धिशाली छाजहड़ गोत्रीय श्रेष्ठि धीणीग के पुत्र थे। माता खेतलदेवी की रत्नकुक्षि से आपने सम्वत 1449 चैत्र सुदि 6 के दिन जन्म लिया। आपका जन्म नाम रामण कुमार था। आप असाधारण रूप गुण संपन्न थे।

एक बार तत्कालीन खरतरगच्छ नायक श्री जिनराजसूरि जी देउलपुर पधारे। उनके उपदेशों से रामण कुमार का वैराग्य जागृत हुआ। आपकी दीक्षा समारोहपूर्वक श्री जिनराजसूरि जी के हस्ते हुई और कीर्तिसागर मुनि नाम रखा गया। वाचनाचार्य शीलचन्द्र गणि के पास विद्याध्ययन कर आपने श्रुत रहस्य को प्राप्त किया।

25 वर्ष की आयु में, सम्वत 1475 में भाणसउलीपुर में, आचार्य श्री सागरचंद्रसूरि जी ने आपको आचार्य पदवी प्रदान कर श्री जिनराजसूरि जी के पट्ट पर स्थापित किया। आचार्य पदवी उपरांत आपका नाम श्री जिनभद्रसूरि रखा गया। साह नाल्हिग ने बड़े समारोह पूर्वक, बाहर से आये हुए अनेक संघों के समक्ष पट्टाभिषेक उत्सव मनाया।

आचार्य जिनभद्रसूरि जी ने अपने सौभाग्य से जिनशासन को दिपाया था। आपके उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य और सत्यव्रत को देखकर लोग आपको स्थूलिभद्र की उपमा देते थे। जैसलमेर नरेश रावल वैरिसिंह और त्रैयंबक दास जैसे नृपति आचार्यश्री के चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम किया करते थे। जैसलमेर के संभवनाथ जिनालय की प्रशस्ति में आपके सद्गुणों की बड़ी प्रशंसा की गयी है।

श्री जिनभद्रसूरि जी ने जैसलमेर में सम्वत 1497 में जिनमंदिर की प्रतिष्ठा की और संभवनाथ इत्यादि 300 जिनबिम्ब प्रतिष्ठित किये। सम्वत 1509 में जैसलमेर के चन्द्रप्रभ मंदिर की प्रतिष्ठा भी पूज्यश्री ने ही करवाई। गिरनार, चित्तौड़गढ़, माँडवगढ़ आदि स्थानों में आपके उपदेश से श्रावकों ने विशाल जिन मंदिर बनवाये। आचार्यश्री ने पालनपुर, माँडवगढ़, तलपाटक आदि नगरों में अनेक जिनबिंबों की प्रतिष्ठा की। आपके द्वारा स्थापित बड़ी संख्या में जिनप्रतिमायें प्राप्त होती है।

नाकोड़ा स्थापक कीर्तिरत्नसूरि को आपने आचार्य पद से अलंकृत किया था। पूज्यश्री ने ही भावप्रभसूरि को आचार्य पद तथा जयसागरोपाध्याय को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया था। आपकी साधु मंडली एवं शिष्य मंडली में कीर्तिरत्नसूरि, महोपाध्याय जयसागर, महोपाध्याय सिद्धांतरूचि, उपाध्याय मेरुसुन्दर, उपाध्याय मेरुनन्दन आदि अनेक बड़े-बड़े विद्वान् और साहित्यकार थे।

श्री जिनभद्रसूरि जी ने अनेकांत जयपताका जैसे प्रखर तर्क ग्रन्थ और विशेषावश्यक भाष्य जैसे सिद्धांत ग्रन्थ अनेक मुनियों को पढ़ाये। पूज्यश्री द्वारा कर्मप्रकृति और कर्मग्रन्थ जैसे गहन ग्रंथों के रहस्यों का सुन्दर और सरल विवेचन सुनकर भिन्न गच्छ के साधु भी चमत्कृत होते थे और आपके ज्ञान की प्रशंसा करते थे। आपके द्वारा रचित कुमार संभव टीका, जिनसत्तरी प्रकरण आदि कुछ रचनायें प्राप्त है।

जिनभद्रसूरि स्वयं भिन्न-भिन्न प्रदेशों में विचरण कर श्रावकों को शास्त्रोद्धार का सतत उपदेश देने लगे। और इस प्रकार सम्वत 1475 से 1515 तक के 40 वर्षों में अनेक ग्रन्थ ताड़पत्र एवं कागज़ पर लिखवाकर भंडारों में सुरक्षित किये। आपने जैसलमेर, नागौर, जालौर, पाटण, खम्भात, आशापल्ली, देवगिरि, मांडवगढ़ इन स्थानों में ज्ञान भंडार स्थापित किये। उल्लेखनीय है कि खम्भात का भण्डार एक ही श्रावक परीक्ष गोत्रीय धरणाक ने तैयार करवाया था।

उस समय मांडवगढ़ के मंत्री श्रीमाल-वंशीय सोनीगरा-गोत्रीय मण्डन और धनदराज बड़े विद्वान और रचनाकार थे। इन दोनों भाइयों ने अपने-अपने ग्रंथों में पूज्यश्री की बहुत प्रशंसा की थी। इन भ्राताओं ने श्री जिनभद्रसूरि के उपदेश से एक विशाल सिद्धांत-कोष लिखवाया था और मांडवगढ़ के ज्ञान भण्डार की स्थापना भी की थी।

आचार्यश्री द्वारा स्थापित जैसलमेर ज्ञान भंडार, किले के संभवनाथ मंदिर के तलघर में आज भी विद्यमान है। यह भण्डार अन्यत्र अप्राप्त दुर्लभ प्राचीन ग्रंथों, ताड़पत्रीय पांडुलिपियों तथा चित्रित काष्ठपट्टिकाओं से समृद्ध है। इस विश्व प्रसिद्ध ज्ञान भंडार से देश-विदेश के अनेक शोधक और विद्वानों ने लाभ उठाया है।

उस काल के विदेशी आक्रांता एवं विधर्मी शासक, जैन मंदिरों तथा ज्ञान भंडारों को नष्ट कर रहे थे। ऐसे समय में श्रुत-रक्षा हेतु, आचार्य जिनभद्रसूरि जी ने अपना सारा जीवन ग्रन्थ-भंडारों की स्थापना और शास्त्र-संरक्षण में लगा दिया।

श्री जिनभद्रसूरि जी बहुत भाग्यवान और तेजस्वी आचार्य थे। आपका आचार्यत्व काल 40 वर्ष का रहा। सम्वत 1514 में कुम्भलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी मूर्तियां एवं चरण पादुकाएं अनेक दादावाडियों एवं मंदिरों में प्रतिष्ठित है। आपकी एक मूर्ति जोधपुर राज्य के खेड़गढ़ के पास नगर नामक गाँव के भूमिग्रह में स्थापित है।


क्रमांक 22 – आचार्य जिनभद्रसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास

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