नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि

संवेग रंगशाला के रचयिता श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि हुए। आपका जीवन वृतांत हमें “प्रभावक चरित्र” नामक ग्रन्थ से प्राप्त होता है। आपके पिता का नाम श्रेष्ठी महीधर तथा माता का नाम धनदेवी था। मालवा प्रदेश की राजधानी धारा नगरी में संवत 1071 में आपका जन्म हुआ। संवत 1080 में आचार्य जिनेश्वरसूरि तथा बुद्धिसागरसूरि धारा नगरी में पधारे। तब बालक अभयकुमार ने आचार्य श्री के वैराग्य पोषक धर्मोपदेश से प्रभावित होकर 8 वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की और अभयदेव मुनि नाम प्राप्त किया।

गुरु के पास आपने स्व-पर शास्त्र का विधिवत अध्ययन किया। अल्प काल में ही आपने ज्ञान ध्यान योग आदि क्षेत्रों में सफलता प्राप्त की। ज्ञानार्जन के साथ वे उग्र तपस्या भी करने लगे। आपकी योग्यता को देखकर जिनेश्वरसूरि ने आपको संवत 1088 में 16 वर्ष की आयु में आचार्य पद प्रदान किया।

एक बार आचार्य अभयदेवसूरि शम्भाण नामक गाँव में विराजित थे। वहां पर किसी रोग वश उनका शरीर अश्वस्थ हो गया और उपाय करने पर भी आराम नहीं मिला। तब आपने संथारा लेने की सोची और अगले दिन संघ को खमत-खामणा के लिए बुलाया। उसी रात शासन देवी प्रगट हुई –

देवी – सोते हो या जागते हो?

सूरिजी – जागता हूँ।

देवी – शीघ्र उठिये और उलझी हुई सूत्र की इन 9 कूकड़ियों को सुलझाइये।

सूरिजी – समर्थ नहीं हूँ माँ।

देवी – क्यों, शक्ति क्यों नहीं है? अभी तो बहुत वर्षों तक जीवित रहोगे। नव अंगों की व्याख्या तुम्हारे ही हाथों से होगी।

सूरिजी – मेरे शरीर की तो यह अवस्था है, मैं व्याख्या कैसे कर सकूंगा?

देवी – ‘स्तम्भनकपुर’ में सेढी नदी के किनारे खाखर (पलाश) पत्तों के नीचे पार्श्वनाथ भगवान की स्वयंभू प्रतिमा विद्यमान है। उस प्रतिमा के आगे भक्ति भाव से स्तवना कर देववंदन कीजिए। आपका शरीर स्वस्थ हो जायेगा।

ऐसा कहकर देवी अदृश्य हो गई।

दूसरे दिन प्रातः काल खमत-खामणा के लिए संघ एकत्रित हुआ। लेकिन पूज्य श्री ने कहा कि अब संथारा नहीं लिया जायेगा। हम पार्श्वनाथ भगवान की वंदना के लिए स्तम्भनकपुर जायेंगे। यह सुनकर उपस्थित संघ आश्वस्त हो गया कि अवश्य ही गुरुदेव को कोई दैविक संकेत प्राप्त हुआ है। फिर आचार्य श्री ने संघ सहित प्रस्थान किया। देव-गुरु की कृपा से आचार्य श्री का अस्वस्थ शरीर यात्रा पूरी होने तक पीड़ा रहित और स्वस्थ हो गया।

स्तम्भनकपुर पहुँच कर श्रावक प्रतिमा की खोज करने लगे। पर उन्हें वह प्रतिमा नहीं मिली और वे हताश होकर गुरुदेव के पास पहुंचे। अभयदेवसूरि ने कहा की “ढाक (पलाश) के पत्तों के नीचे देखो”। गुरुदेव के कहे अनुसार उसी जगह पर देदीप्यमान प्रतिमा के दर्शन कर श्रावक आनंद विभोर हुए। ग्रामवासियों से ज्ञात हुआ कि प्रतिमा जिस स्थान पर थी वहां पर एक गाय प्रतिदिन दूध झारती थी। प्रतिमा प्राप्ति के शुभ समाचार सुनकर आचार्य श्री भगवद वंदना के लिए चले।

पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा के दर्शन कर के, भक्तिपूर्वक, शासन देवी कि सहायता से “जय तिहुयण” आदि 32 पद्यों के स्तोत्र की रचना की। इस स्तोत्र में अंतिम दो गाथायें देवताओं का आकर्षण करने वाली थी। इसलिए देवताओं ने आचार्य श्री कहा – “भगवन! नमस्कार सम्बन्धी 30 गाथाओं से ही हम प्रसन्न हो कर पाठ करने वालों का कल्याण करेंगे। अंतिम 2 गाथाओं के पाठ से तो हम को प्रत्यक्ष उपस्थित होना पड़ेगा, जो हमारे लिये कष्टदायी होगा। अतः स्तोत्र में अंत की 2 गाथाओं का संहरण कर दीजिये”। देवताओं के अनुरोध से आचार्य श्री ने स्तोत्र में से दो गाथाएं कम कर दी।   उसके पश्चात प्रतिमा के समक्ष अभयदेवसूरि ने देववंदन किया। तथा संघ समुदाय ने पूजा कर विधि-विधान पूर्वक उस प्रतिमा की स्थापना की। वहां पर एक विशाल जिन मंदिर का निर्माण कराया गया। तभी से विश्व में श्री अभयदेवसूरि द्वारा स्थापित सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला यह श्री पार्श्वनाथ स्वामी का तीर्थ प्रसिद्ध हुआ।

स्तम्भनकपुर से विहार कर अभयदेवसूरि पाटण शहर में पधारे। वहां पर स्वर्गीय जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रतिष्ठित “करडि हट्टी” वसति में रहे। काल के दुष्प्रभाव से उस समय के प्रमुख आचार्यों में आगमों के अभ्यास की परंपरा शिथिल हो गयी थी। और वे ज्योतिष, नाट्य शास्त्र, आयुर्वेद आदि विषयों के अध्ययन में अपना समय व्यतीत करते थे। आगमों में सिर्फ आचारांग और सूयगडांग पर ही टीका उपलब्ध थी। ऐसी परिस्थिति को देखकर अभयदेवसूरि ने नव अंगो पर टीकाओं की रचना वहां पर प्रारम्भ की। व्याख्या करते समय संदेह होने पर जया-विजया-जयंती-अपराजिता नामक शासनदेवियां, महाविदेह क्षेत्र में विराजमान तीर्थंकर भगवान से पूछकर उनका संदेह निवारण करती थी।

चैत्यवासी आचार्यों में प्रधान द्रोणाचार्य भी अभयदेवसूरि से बहुत प्रभावित थे। सूरिजी की एक व्याख्यावृत्ति को पढ़कर द्रोणाचार्य को बड़ा विस्मय हुआ कि क्या यह व्याख्या गणधरों द्वारा रचित है या अभयदेवसूरि की ही बनाई हुई है। अपने प्रमुख आचार्य का अभयदेवसूरि के प्रति अत्याधिक सम्मान देखखर अन्य चैत्यवासी आचार्य रुष्ट हो गए। तब द्रोणाचार्य ने एक नूतन श्लोक बनाकर मठों में सब चैत्यवासी आचार्यों के पास भिजवाया, जिसका अर्थ यह था –

आजकल घर-घर में अनेक आचार्य हैं, जिनकी महिमा को भी साधारण पुरुष समझ नहीं सकते और जो अपने सच्चरित्रों से सारे संसार को पवित्र कर रहे हैं। यद्यपि यह सभ कुछ सत्य है, फिर भी में विद्वान् लोगों से पूछता हूं कि इस समय जगत में कोई एक आचार्य भी ऐसा बतलावें जो किसी एक गुण में भी इन अभयदेवसूरि की समानता कर सकता हो!

यह पढ़कर सब चैत्यवासी आचार्य ठंडे पड़ गए। उसके बाद द्रोणाचार्य ने अभयदेवसूरि से कहा – “आप जो भी वृत्तियाँ बनावेंगे उनका लेखन और संशोधन में करूँगा”।

एक बार अभयदेवसूरि प्रतिबोधित बारह व्रतधारी दो श्रावकों का देवलोक गमन हुआ। और वे तीर्थंकर वंदना के लिए महाविदेह क्षेत्र में गये। उनके पूछने पर तीर्थंकर भगवान सीमंधरस्वामी और युगमंधरस्वामी ने कहा कि अभयदेवसूरि तीसरे भव में मोक्ष जायेंगे।

जैन साहित्य में अभयदेवसूरि का महान योगदान रहा है। आचार्य श्री ने अपनी विलक्षण प्रतिभा का उपयोग आगमों पर 60,000 श्लोक प्रमाण टीकाएं बनाने के लिए किया। यह टीकाएं बहुत ही उपयोगी है और मंदिरमार्गी, स्थानकवासी, तेरापंथी सभी सम्प्रदायों में मान्य है। स्थानांग सूत्र आदि नवांग ग्रंथो की टीका का रचना काल विक्रम संवत 1120 से 1128 के मध्य का है। टीकाओं का प्रारम्भ पाटण में हुआ था और पूर्णता भी पाटण में हुई थी।

अभयदेवसूरि के विद्वान् शिष्यों में प्रसन्नचंद्रसूरि, वर्धमानसूरि, हरिभद्रसूरि, देवभद्रसूरि, जिनवल्लभसूरि आदि का नाम उल्लेखनीय है। आपके उपदेश से अनेक जैनेतर लोग जैन बने। उनमें से पगारिया, खेतसी, मेड़तवाल आदि गोत्रों का नाम उल्लेखनीय है।

आपका स्वर्गवास कपडवंज में संवत 1138 के आस पास हुआ। श्वेताम्बर के पिछले सभी गच्छ एवं पक्ष के विद्वानों ने अत्यंत आदर एवं सत्यनिष्ठा के साथ अभयदेवसूरि का स्मरण किया है। और इनके वचनो को पूर्णतया आप्तवचन की कोटि में रखा है।

विशेष: पार्श्वनाथ की प्रतिमा पहले प्रकट हुई अथवा नौ अंगो पर टीका पहले लिखी गयी, इस प्रश्न पर लम्बे समय से ही रचनाकारों में मतभेद चला आ रहा है। सुमति गणि कृत गणधरसार्धशतक वृति, उपाध्याय जिनपाल रचित युगप्रधानाचार्य गुर्वावली, जिनप्रभसूरि कृत विविधतीर्थकल्प के अनुसार पहले प्रतिमा प्रकट हुई फिर नौ अंगो पर टीका की रचना हुई। इसके विपरीत प्रभावकचरित, प्रभन्धचिंतामणि एवं पुरातनप्रभन्धसंग्रह में पहले टीकाओं की रचना का और फिर पार्श्वनाथ की प्रतिमा के प्रकटीकरण होने की बात है।

अभयदेवसूरि के जीवन के रोचक प्रसंग

एक बार विहार करते हुए अभयदेवसूरि पाल्हऊदा गाँव में पधारे। वहां के श्रावक समुद्र के रास्ते से विदेशों में व्यापार करते थे। उस समय उन्हें समाचार मिले की किराने से भरे हुए जहाज समुद्र में डूब गए। यह सुनकर श्रावकगण अत्यंत उदास हो गए और वे आचार्य श्री की वंदना करने सही समय पर नहीं पहुंचे।

सूरीजी ने किसी कारणवश उन्हें याद किया तब वे उपाश्रय में पहुंचे और जहाजों के डूबने के समाचार सुनाए। गुरुदेव ने एकाग्रचित्त हो कर क्षण भर के लिए ध्यान लगाया। फिर उन श्रावकों से कहा – “आप लोग इस विषय में चिंतित न हो। कोई चिंता करने की बात नहीं है।” दूसरे ही दिन किसी व्यक्ति ने आकर समाचार सुनाए कि – “आप लोगों की जहाज सकुशल समुद्र पार पहुँच गए हैं।”

श्रावकों ने गुरुदेव के पास आकर कहा कि आप की वाणी सत्य हुई है। और इस किराने के व्यापार का आधा धन सूरिजी रचित सिद्धांत वृत्ति की पुस्तकों की लिखाई में व्यय करेंगे। इस पर गुरुदेव ने उन श्रावकों की सराहना और प्रशंसा की।

महोपाध्याय क्षमाकल्याण कृत पट्टावली के अनुसार स्तम्भनकपुर में पार्श्वनाथ की प्रतिमा यथास्थान न मिलने पर अभयदेवसूरि ने जयतिहुअण स्तोत्र द्वारा प्रभु की स्तवना प्रारम्भ की। इस स्तोत्र का 16 वां  पद्य ” फणिफणफारफुरन्त” का उच्चारण करने के साथ ही भूमि से स्तम्भन पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई।

समग्र जिन शाशन और खरतर परंपरा में अभयदेवसूरि की गौरवमयी प्रतिष्ठा है। जयतिहुअण स्तोत्र आज भी खरतरगच्छीय प्रतिक्रमण में बोला जाता है।


क्रमांक 5 – नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास  

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