आचार्य जिनेश्वरसूरि

खरतर परंपरा जैन धर्म में स्वर्ण अक्षरों से अंकित है। इसका मूल कारण चैत्यवास का उन्मूलन और सुविहित मार्ग का प्रचार है। आज से लगभग 1000 वर्ष पहले आचार्य वर्धमानसूरि हुए। उन्होंने वेद विद्या सम्पन्न श्रीधर और श्रीपति बंधुओं को अपना शिष्य बनाया। उनका नाम जिनेश्वर और बुद्धिसागर रखा और क्रमशः आचार्य पद प्रदान किया।

जिनेश्वरसूरि प्रतिभाशाली और विद्वान आचार्य थे। एक समय वे अपने गुरु वर्धमानसूरि के साथ दिल्ली में विराजमान थे। उन्होंने विचार किया की गुर्जर देश चैत्यवासियों का गढ़ है और वहां जिनमत के प्रचार के लिए जाना चाहिए। आचार्य वर्धमानसूरि इस उद्देश्य से जिनेश्वरसूरि सहित 18 साधु मंडल के साथ अणहिलपुर पाटण पहुंचे। चैत्यवासियों के दुष्प्रभाव के कारण उन्हें नगर में रुकने के लिए कहीं भी स्थान नहीं मिला। तत्पश्चात जिनेश्वरसूरि ने वहां के राजपुरोहित को प्रभावित कर उसकी चतुःशाला में ठहरे।

यह बात जब चैत्यवासी सुराचार्य को पता चली, तो उसने दुर्लभ राजा के मन में भ्रम पैदा किया की यह परदेस से आये मुनि, गुप्तचर है। तब राजपुरोहित ने राजा को आश्वस्त कर के कहा की इन मुनियों में कोई भी दूषण नहीं है और वे साक्षात् धर्मपुंज है। यह दाव खाली जाने पर सुराचार्य ने शास्त्रार्थ की बात रखी। पंचासरा पार्श्वनाथ भगवान के मंदिर में दुर्लभराज के समक्ष शास्त्रार्थ होना तय हुआ। वर्धमानसूरि ने जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ करने का अधिकार प्रदान किया।

सभा के प्रारम्भ में राजा ने साधुओं के सम्मान में उन्हें मखमली गादी पर बैठने का अनुरोध किया और ताम्बूल (पान) आदि भेंट किये। जिनेश्वरसूरि ने कहा की ये सभी वस्तुएं सुविहित साधुओं को कल्पति नहीं है। यह सुनकर वहां उपस्थित जैन संघ की आचार्यश्री के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई। शास्त्रार्थ करते हुए जिनेश्वरसूरि ने कहा की हम गणधर और चतुर्दश पूर्वधर द्वारा बताये हुए मार्ग पर ही चलते हैं। उन्होंने दशवैकालिक, आचारांग आदि शास्त्रों के आधार पर साधुजनो के आचार बताये। आगमिक उल्लेखों के सामने सुराचार्य निरुत्तर हो गए। दुर्लभराज ने वर्धमानसूरि – जिनेश्वरसूरि को विजय पताका देते हुए कहा की आपका पक्ष सत्य है – “खरा” है। इस विजय के पश्चात समस्त गुर्जर धरा पर सुविहित साधुओं पर लगे हुए राजकीय प्रतिबन्ध समाप्त हो गए और वसतिवास प्रारम्भ हुआ।

महाराजा दुर्लभराज के मुख से विजय सूचक “खरा” शब्द ही “खरतरगच्छ” का आविर्भावक बना।

शास्त्रार्थ में पराजय के बाद चैत्यवासियों ने एक नयी चाल चली। चूँकि राजा पटरानी की बात को महत्व देते थे, इसलिए रानी को प्रसन्न करके सुविहित मुनियों को राज्य से निकलवाने की बात उन्होंने सोची। उनके द्वारा रानी के लिए विविध प्रकार की भेंट राज महल में पहुंचाई गई। लेकिन दुर्लभराज ने भेंट नहीं स्वीकार करने का आदेश दिया। और इस प्रकार चैत्यवासियों का यह उपाय भी निष्फल गया। तब उन्होंने राज्य छोड़कर जाने की धमकी दी। पर राजा पर इसका भी कोई असर नहीं हुआ। यह जानकर चैत्यवासी राज्य छोड़कर चले गए।

जिनेश्वरसूरि की विद्वता और उत्तम चरित्र को देखकर वर्धमानसूरि ने उन्हें अपने पाट पर स्थापित किया। और उनके भाई बुद्धिसागरजी को आचार्य पद प्रदान किया एवं बहन कल्याणमतिजी को महत्तरा पद से विभूषित किया। इन्ही दिनों वर्धमानसूरि आबू तीर्थ पर अनशन कर देवगति को प्राप्त हुए।

जिनेश्वरसूरि के प्रखर और श्रेष्ठ आचार का प्रभाव दूसरे गच्छ और समुदाय के विद्वान जैनाचार्यों पर भी पड़ा। उनमें से कई समर्थ यतिजनों ने क्रियोद्धार और ज्ञानोपासना की विशिष्ट प्रवृत्ति का अनुसरण किया। मुनि जिनविजयजी लिखते हैं की जिनेश्वरसूरि से जैन संघ में नूतन युग का प्रारम्भ हुआ। पुरातन प्रचलित भावनाओं में परिवर्तन होने लगा। त्यागी और गृहस्थ दोनों प्रकार के समूहों में नए संघटन होने शुरू हुए। देवपूजा आदि पद्धतियों में संशोधन होने लगा, एवं नए ग्रन्थ निर्माण तथा पुरातन ग्रंथों पर टीका आदि रचे जाने लगे। नए वसतिगृह बनने लगे, जो आगे जाकर उपाश्रय के नाम से प्रसिद्ध हुए।

उन्होंने संवेग रंगशाला रचयिता जिनचन्द्रसुरिजी और नवांगी टीकाकार अभयदेवसुरिजी को आचार्य पद प्रदान किया, तथा अन्य मुनियों को उनकी योग्यता अनुसार आचार्य, उपाध्याय आदि पद प्रदान किये।

जिनेश्वरसूरि द्वारा रचित कुछ साहित्य –

  • आशापल्ली नगर में ‘लीलावती कथा’ नामक ग्रन्थ की रचना
  • चातुर्मास में कथा-वाचकों के हितार्थ ‘कथाकोष प्रकरण’ की रचना
  • प्रमालक्ष्म
  • पंचलिंगी प्रकरण
  • षट्स्थानक प्रकरण आदि

आचार्य वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि द्वारा आरम्भ किये गए चैत्यवास विरोधी आंदोलन को उनकी परंपरा में हुए जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, देवभद्रसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि आदि आचार्यों ने आगे बढ़ाया। परिणाम स्वरुप चैत्यवास की परंपरा तेरहवी शताब्दी के अंत तक प्रायः नष्ट हो गयी।

आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा निर्दिष्ट इस परंपरा को “सुविहित मार्ग” का नाम प्राप्त हुआ। और आचार्य अभयदेवसूरि के समय तक प्रायः यही नाम प्रचलित रहा। जिनवल्लभसूरि एवं जिनदत्तसूरि के समय यह परंपरा “विधि मार्ग” के नाम से जानी गयी। और यही आगे चलकर “खरतरगच्छ” के नाम से प्रसिद्ध हुई।

हालाँकि “खरतरगच्छ” शब्द वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि के समय में प्रचलित नहीं था। पर खरतरगच्छीय परंपरा उन्हें अपना पूर्वज मानती है और कोई भी अन्य परंपरा स्वयं को इनसे संबंध नहीं करती। अतः यह स्पष्ट है की वे खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि आदि के पूर्वज अवश्य थे। और इसी कारण से खरतरगच्छ की परंपरा एक स्वर से वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि आदि को खरतरगच्छीय मानती है।

विक्रम की 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जैन यतिवर्ग में एक प्रकार से नए युग का आरम्भ हुआ। जिनेश्वरसूरि के जीवन कार्य ने इस युग परिवर्तन को सूनिश्चित मूर्तरूप दिया। पिछले 900 वर्षों में पश्चिम भारत में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रचलित प्रवाह के मूल में जिनेश्वरसूरि का जीवन सबसे विशिस्ट प्रभाव रखता है। इसी कारण से उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने उनको युगप्रधान पद से सम्बोधित किया।   जैन धर्म के इस महान आचार्य, जिनेश्वरसूरि का निधन विक्रम सम्वत 1108 के पश्चात और 1120 के पूर्व सुनिश्चित है।

जिनेश्वरसूरि के जीवन के रोचक प्रसंग

जब आचार्य वर्धमानसूरि जिनेश्वर गणि आदि शिष्यों के साथ दिल्ली से पाटण की ओर विहार कर रहे थे तब प्रयाण करते हुए पाली पहुंचे। एक दिन वर्धमानसूरि व जिनेश्वर गणि शौच के लिए जा रहे थे। तब उन्हें सोमध्वज नामक जटाधारी जोगी मिला।

सोमध्वज ने वर्धमानसूरि से संस्कृत श्लोक बोलकर प्रश्न किया:

का दौर्गत्यविनाशिनी हरिविरंच्युग्रप्रवाची च को

वर्णः को व्यपनीयते च पथिकैरत्यादरेण श्रमः ।

चन्द्रः पृच्छति मंदिरेषु मरुतां शोभाविधायी च को

दाक्षिण्येन नयेन विश्वविदितः को वा भुवि भ्राजते ।।

जिसका भावार्थ यह था  

  1. दरिद्रता का नाश करने वाली वस्तु क्या है?
  2. ब्रह्मा-विष्णु-महेश का वाचक वर्ण क्या है?
  3. पथिक लोग अपने किस श्रम को सुखपूर्वक दूर करते हैं?
  4. चंद्र पूछता है की देव मंदिरों में शोभा बढ़ाने वाली वस्तु क्या है?
  5. जगत में चतुरता तथा न्याय आदि गुणों से विश्व विख्यात होकर कौन प्रकाशमान है?

इन पांचो प्रश्नो का उत्तर सूरिजी ने एक ही पद में दिया – “सोमध्वज”

  • प्रथम संधि विश्लेष में “सा-ऊम्-अध्वजः” से प्रथम के 3 प्रश्नो का उत्तर
  • द्वितीय संधि विश्लेष में “सोमः ध्वजः” से 4थे प्रश्न का उत्तर
  • एवं समस्त वाक्य “सोमध्वज” से 5वे प्रश्न का उत्तर
  1. दरिद्रता का नाश करनेवाली वाली “सा” (लक्ष्मी) है
  2. “ऊम्” यह वर्ण ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनो का वाचक है
  3. पथिक लोग “अध्वज” यानी मार्ग जनित श्रम को बड़े चाव से दूर करना चाहते है
  4. हे “सोम-चन्द्र” मंदिरों की शोभा “ध्वजा” से बढती है
  5. चतुराई और निति में विश्वविख्यात यदि कोई है तो वह आप “सोमध्वज” है

जटाधारी जोगी अपने पांचो प्रश्नो का उत्तर अपने ही नाम “सोमध्वज” में पाकर प्रसन्न हुआ और उसने सूरिजी की बहुत भक्ति की।

एक बार जिनेश्वरसूरि विहार करते हुए जोधपुर के पास डीडवाना गांव पहुंचे। वहां पर मरूदेवी नामक गणिनी का चालीस दिन का संथारा चल रहा था। आचार्यश्री ने उनके समाधि काल में संलेखना पाठ सुनाया और उनसे कहा की आप दूसरे भव में जहां भी जन्म लें वह स्थान हमें बताइयेगा। यहां से मरूदेवीजी परमर्द्धिक देवलोक में उत्त्पन्न हुई।

देवरूप में जो मरूदेवी साध्वीजी थे वह एक बार तीर्थंकर वंदना के लिए महाविदेह क्षेत्र में गए। सौभाग्यवश ब्रह्मशान्ति नामक यक्ष भी वहां आये हुए थे। वहां से देवरूप धारिणी मरूदेवी ने उनके साथ जिनेश्वरसूरि को यह संदेश भेजा।

मरुदेवि नाम अज्जा गणिणी जा आसि तुम्ह गच्छांमी ।

सग्गंमि गया पढमे, देवो जाओ महिड्ढिओ ।।

टक्कलयांमि विमाणे दुसागराओ सुरो समुप्पन्नो ।

समणेस-सिरिजिणेसरसूरिस्स इमं कहिज्जासु ।।

टक्कऊरे जिणवंदण-निमित्तमिहागएण संदिट्ठं ।

चरणंमि उज्जमो भे कायव्वो किं व सेसेसु ।।  

जिसका भावार्थ यह था  –

आपके गच्छ में जो मरुदेवी नामक गणिनी आर्या थी, वह प्रथम स्वर्ग में जाकर महर्धिक देव हुई है। वह टक्कल नामक विमान में है और दो सागर आयुष्य के परिमाण से उत्पन्न हुई है।

मुनीन्द्र जिनेश्वरसूरि को यह समाचार मेरी ओर से कह देना ओर कहना की महर्द्धि देव देहधारिणी मरुदेवी जिन वन्दना के लिये टक्कलपुर में आई थी, वहां पर संदेश दिया है कि आप चरित्र के लिए अधिक से अधिक उद्यम करें। शेष अन्य कार्यों से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।

उन्हीं दिनों एक श्रावक ‘युगप्रधान आचार्य कौन है’ यह निश्चय करने के लिए गिरनार के उज्जयंत पर्वत पर उपवास की आराधना कर रहे थे। ब्रह्मशान्ति यक्ष ने मरूदेवी साध्वीजी का संदेश जिनेश्वरसूरि को नहीं सुनाकर, पर्वत पर तपस्या करने वाले श्रावक को बताया । और उसके वस्त्र पर “म.स.ट.स.ट.च.” यह अक्षर लिखकर कहा की आप पाटण जाओ और जिस आचार्य के हाथ से धोने पर ये अक्षर मिट जायें, उन्हीं को युगप्राधन जानना।

श्रावक पाटण नगर में अन्य उपाश्रयों में घूमने के बाद आचार्य जिनेश्वरसूरि के पास पहुंचा। वहां सूरिजी ने उस वस्त्र पर लिखे अक्षर पढ़कर उसे धो दिया तथा मरूदेवी साध्वीजी की तीनो गाथाएं ज्यों की त्यों लिख दी। इससे यह सिद्ध हो गया की वे ही युगप्रधान है।  


क्रमांक 2 – आचार्य जिनेश्वरसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास  

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