आचार्य जिनपद्मसूरि

दादा गुरुदेव श्री जिनकुशलसूरि जी के पट्टधर श्री जिनपद्मसूरि जी हुए। आपके पिता खीमड कुलरत्न अम्बदेव थे तथा आपकी माता का नाम कीकी था। सम्वत 1384 में लगभग 9 वर्ष की आयु में कुशल गुरुदेव के हस्ते आपकी दीक्षा हुई और पद्ममूर्ति नाम रखा गया।

कुशल गुरुदेव ने अपना आयुशेष जानकर, तरुणप्रभाचार्य और लब्धिनिधान महोपाध्याय को श्रीमुख से आज्ञा दी कि – “मेरे पाट पर मेरे शिष्यों में प्रधान, 15 वर्ष की आयु वाले, सेठों में प्रधान सेठ आम्बाजी की पुत्री साध्वी कीकी के नंदन, युगप्रधान के गुणरूप लक्ष्मी के क्रीड़ा-लीला स्थान, पद्ममूर्ति नामक क्षुल्लक को आचार्य पदार्पण कर पट्टधर बनाना।”

सम्वत 1390 में देराउर नगर में तरुणप्रभाचार्य ने आपको पट्टधर घोषित कर, कुशल गुरुदेव निर्दिष्ट जिनपद्मसूरि नाम रखा। यह पाट महोत्सव लब्धिनिधान महोपाध्याय आदि 30 मुनियों एवं अनेक साध्वियों तथा कई नगरों से आये हज़ारों श्रावकों की उपस्थिति में एक महीने तक बड़े धूमधाम से हुआ।

पट्टाभिषेक के बाद आपका प्रथम चातुर्मास जैसलमेर में हुआ। वहां से विहार कर महाराज जब बाड़मेर पधारे तब प्रवेश महोत्सव में चौहान नरेश राणा शिखरसिंह एवं अनेक राजपुरुष उपस्थित थे। पूज्यश्री के सांचौर प्रवेश में राणा हरिपालदेव तथा अन्य राजकीय अधिकारी सम्मुख आये थे।

तदनन्तर पूज्यश्री द्वारा पाटण में भव्य महोत्सव पूर्वक 500 जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई। आचार्य जिनपद्मसूरि ने जीरावला, आबू, तारंगा, कुम्भारियाजी आदि अनेक तीर्थों की विविध चतुर्विध संघों सहित यात्रा की।

सम्वत 1393 में आचार्य जिनपद्मसूरि त्रिशृङ्गम पधारे। मंत्री मण्डलिक आदि ने राजकीय वाजिंत्रों के साथ बड़े समारोहपूर्वक प्रवेशोत्सव किया। संघ के साथ चैत्यपरिपाटी करते समय पूज्यश्री की प्रशंसा सुनकर वहां के राजा रामदेव के चित्त में उनके दर्शन की उत्कंठा जागृत हुई। राजा के अनुरोध से पूज्यश्री राजसभा में पधारे। राजा ने सूरिजी को आते देख कर, राजसिंहासन से नीचे उतर कर चरणवंदना की।

सूरिजी ने कविता द्वारा राजा रामदेव का वर्णन भावगर्भित श्लोकों से किया। जिसे सुनकर सारी राजसभा आश्चर्य निमग्न हो गयी। राजा ने उस काव्य को विकट अक्षरों में लिखवाया। फिर पूज्यश्री ने काव्य के अनेकों अर्थ कर राजा को चमत्कृत किया। इसके बाद सूरिजी ने काव्य के प्रत्येक श्लोक के एक एक अक्षर को भिन्न भिन्न लिखवाकर और उन्हें मिटाकर तीसरी बार तीन श्लोकों को सम्पूर्ण करवा दिया। फिर उन तीनों श्लोकों को एक पट्टी पर लिखवाकर राजहंसमय चित्रकाव्य की रचना की।

सूरिजी की इस प्रतिभा और बुद्धिवैभव को देखकर राजा रामदेव चकित हुए और राजसभा के लोग कहने लगे कि – “यद्यपि इस विषम कलिकाल में कलाएं लुप्तप्राय हो गई हैं, फिर भी जिनशासन में अतिशय कला-कलाप को धारण करनेवाले सूरिवर अब भी हैं।”

अन्य पट्टावलियों में आपके बारें में एक घटना का विवरण आता है। एक बार पूज्यश्री पाटण की तरफ विहार करते समय मार्ग में सरस्वती नदी के किनारे ठहरे। लघुवयस्क पूज्यश्री के मन में विचार आया कि – “कल पाटण के महान संघ के सम्मुख मैं भली प्रकार से धर्म-देशना न दे सका तो संघ क्या समझेगा?” तब सरस्वती देवी ने प्रत्यक्ष होकर श्री जिनपद्मसूरि को वरदान दिया। और दूसरे दिन पाटण पहुंचकर “अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र महिता” इस नवीन काव्य का निर्माण कर, उसकी बहुत ही सुन्दर विवेचना कर वहां के संघ को आश्चर्यचकित किया। संघ ने आपको “बाल धवल कूर्चाल सरस्वती” उपाधि से सुशोभित किया।

आपके द्वारा रचित श्री जिनकुशलसूरि अष्टक, थूलिभद्द फागु, श्री शत्रुंजय चतुर्विंशति स्तवनं आदि अनेक स्तोत्रादि उपलब्ध है। स्थूलिभद्र स्वामी की कथा पर आधारित “थूलिभद्द फागु” मरुगुर्जर भाषा की आदिकालीन रचनाओं में से साहित्यिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण रचना है।

सम्वत 1400 में पाटण में लगभग 25 वर्ष की अल्पायु में ही आपका स्वर्गवास हो गया। कुशल गुरुदेव के हस्ते दीक्षित, इन महान पट्ट्धर आचार्य की स्मृति में संघ ने सुन्दर स्तूप निर्माण करवाया।


क्रमांक 16 – आचार्य जिनपद्मसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास

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