दादा गुरुदेव जिनकुशलसूरि
प्रकट प्रभावी, कामित कल्पतरु, भक्तजन वत्सल, शासन प्रभावक, अतिशयधारी, दादा गुरुदेव श्री जिनकुशलसूरि अपने समय के युगप्रधान महापुरुष थे। आपके परम पवित्र जीवन चरित्र और गुणों का वर्णन कवियों ने अनेक स्तुति एवं स्तवनों से किया है। आज से लगभग 700 वर्ष पूर्व की विकट परिस्थितियों में भी आपने अपने प्रभावशाली धर्मोपदेश से प्रतिबोधित कर 50000 से अधिक नूतन जैन बनाये थे।
आपका जन्म मारवाड़ के समियाणा नगर (जोधपुर के निकट गढ़सिवाना) में सम्वत 1337 मिति मार्गशीर्ष वदी 3 सोमवार के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ। आप छाजेड़ गोत्रीय मंत्रीश्वर देवराज के पुत्र मंत्री जेसल शाह और माता जयंतश्री के सुपुत्र थे। आपका जन्म नाम करमण कुमार था। जब आप दस वर्ष के थे तब आपके सांसारिक पक्ष के काका, कलिकाल केवली जिनचन्द्रसूरि का पदार्पण गढ़सिवाना में हुआ। आचार्यश्री का व्याख्यान सुनकर करमण कुमार संसार से विरक्त हुए और अपना समग्र जीवन संयम-आराधना में व्यतीत करने का निश्चय कर लिया। अतः माता ने आपके दृढ़ निश्चय से विवश होकर, पुत्र मोह को त्यागकर अनुमति प्रदान की। सम्वत 1347 फाल्गुन सुदी 8 के दिन श्री जिनचन्द्रसूरि के करकमलों से समारोह पूर्वक आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई। और आपका नाम कुशलकीर्ति रखा गया।
मुनि कुशलकीर्ति का विद्याध्ययन प्रकाण्ड विद्वान् और वयोवृद्ध गीतार्थ उपाध्याय विवेकसमुद्र के पास हुआ। आपके गुरु कलिकाल केवली जिनचन्द्रसूरि के विद्या गुरु भी विवेकसमुद्र गणि ही थे।
सम्वत 1375 में आचार्य जिनचन्द्रसूरि नागौर पधारे। वहां पर दिल्ली, हांसी, जालौर, केशवाना, सिवाणा आदि के श्रीसंघ के एकत्रित हुए और एक विराट उत्सव प्रारम्भ हुआ। जगह जगह सदावर्त खोले गए, धनवान श्रावकों ने सोने-चांदी के कड़े, अन्न, वस्त्र बांटे, मंदिरों में पूजन आदि अनेक धार्मिक सत्कार्य हुए। दीक्षाएँ, पदारोहण, व्रतग्रहण, मालारोपण के लिए नंदी महोत्सव आदि हुए।
बाल्यकाल से ही कुशलकीर्ति मुनि की प्रतिभा का अत्याधिक विकास हुआ और वह समस्त शास्त्रों में पारङ्गत विद्वान् हुए। न्याय और व्याकरण जैसे असाधारण विषयों में आपकी गति-मति आश्चर्यजनक थी। अतएव आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने आपको सर्वथा योग्य जानकर इसी उत्सव में माघ सुदी 12 के दिन वाचनाचार्य पद से विभूषित किया।
ठाकुर अचलसिंह ने सुल्तान क़ुतुबुद्दीन से सवर्त्र निर्विरोध यात्रा के लिए फरमान निकलवाकर नागौर से हस्तिनापुर और मथुरा तीर्थों के लिए विराट संघ निकाला। आचार्य जिनचन्द्रसूरि और कुशलकीर्ति गणि ने संघ सहित तीर्थ यात्रा कर दिल्ली के निकट खंडसराय में चातुर्मास किया।
तदनन्तर आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने अपने ज्ञान-ध्यान के बल से अपना आयुशेष निकट जानकर, स्वहस्त दीक्षित वाचनाचार्य कुशलकीर्ति गणि को अपने पद के योग्य समझकर, पाट-स्थापना संबंधित एक पत्र सुश्रावक ठाकुर विजयसिंह एवं दूसरा पत्र जयवल्लभ गणि को आचार्य राजेन्द्रचन्द्रसूरि को सौंपने के लिए दिया।
कलिकाल केवली जिनचन्द्रसूरि के स्वर्गवास के पश्चात, जयवल्लभ गणि उनका पत्र लेकर राजेन्द्रचन्द्रसूरि के पास भीमपल्ली पहुंचे। आचार्य राजेन्द्रचन्द्रसूरि ने पत्र के आशय को जाना और जयवल्लभ गणि आदि साधुओं के साथ विहार कर पाटण पहुंचे। उस समय पाटण में भीषण अकाल होने पर भी, अपने ज्ञान बल से चतुर्विध संघ का कुशल जानकर, सम्वत 1377 ज्येष्ठ वदी 11 कुम्भ लग्न में सूरि पद स्थापना का मुहूर्त निर्धारित किया।
महोपाध्याय विवेकसमुद्र, प्रवर्तक जयवल्लभ गणि, वाचनाचार्य हेमभूषण गणि आदि 33 साधुओं की उपस्थिति में एवं महत्तरा जयर्द्धि, प्रवर्तिनी बुद्धिसमृद्धि गणिनी आदि 23 साध्वियों एवं शताधिक संघों के समक्ष आचार्य राजेन्द्रचन्द्रसूरि ने जयवल्लभ गणि और ठाकुर विजयसिंह द्वारा प्राप्त स्वर्गीय जिनचन्द्रसूरि के दोनों आज्ञा पत्र पढ़कर सुनाये।
राजेन्द्रचन्द्रसूरि ने पाटण नगर में शांतिनाथ स्वामी के मंदिर में वाचनाचार्य श्री कुशलकीर्ति गणि को युगप्रधान पदवी दी और उत्सवपूर्वक कलिकाल केवली जिनचन्द्रसूरि के पाट पर स्थापित किया। स्वर्गीय जिनचन्द्रसूरि की आज्ञा अनुसार आपका नाम “जिनकुशलसूरि” रखा गया।
उत्सव के दिनों में सोने-चांदी के कड़े बांटे गए, अश्व, वस्त्र, अन्न आदि दिए गए तथा संघ पूजा की गयी। जिनप्रबोधसूरि के छोटे भाई जाल्हण के पुत्र सेठ तेजपाल तथा रुद्रपाल ने इस उत्सव में अपने न्याय-उपार्जित धन को व्यय कर महाफल की प्राप्ति की। उन्होंने अपने घर पर 100 आचार्य, 700 साधु और 2400 साध्वियों को वस्त्र देने का लाभ लिया। अनेक संघों से आये सुश्रावकों ने भी धार्मिक कार्यों में धन व्यय कर पुण्य उपार्जन किया। उस समय म्लेच्छों की प्रधानता होने पर भी, हिन्दू महाराजाओं के समय की तरह पाटण नगर में हुआ यह युगप्रधान पद स्थापना उत्सव बड़ा चमत्कृत करनेवाला था।
दादा गुरुदेव जिनकुशलसूरि ने आचार्य पदवी के उपरांत प्रथम चातुर्मास भीमपल्ली में किया। सम्वत 1378 में अपने ज्ञान-ध्यान के बल से स्वयं के विद्या गुरु उपाध्याय विवेकसमुद्र का आयुशेष निकट जानकर श्री जिनकुशलसूरि भीमपल्ली से पाटण पधारे। उपाध्याय विवेकसमुद्र जी के शरीर में कोई व्याधि न होने पर भी, कुशल गुरुदेव ने चतुर्विध संघ के समक्ष उपाध्याय जी को मिथ्यादुष्कृत करवाकर अत्यंत श्रद्धापूर्वक अनशन करवाया। तीन दिन पश्चात, पंच परमेष्ठी का ध्यान करते हुए उपाध्याय जी स्वर्ग सिधारे। अग्नि संस्कार के स्थल पर श्रीसंघ ने एक सुन्दर स्तूप बनाया, जिसे गुरुदेव ने वासक्षेप कर प्रतिष्ठित किया।
प्रकाण्ड विद्वान् उपाध्याय विवेकसमुद्र ने अनेक मुनि महात्माओं को आगम आदि शास्त्र पढ़ाये थे। आपने 18000 अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण हैमव्याकरण बृहद्वृत्ति एवं 36000 श्लोक प्रमाण श्री न्याय महातर्क आदि शास्त्रों का अभ्यास अनेक मुनियों को करवाया था।
सम्वत 1379 मार्गशीर्ष वदी 5 को पाटण में सेठ तेजपाल ने अनेक नगरों के धनाढ्य श्रावकों तथा राजकीय कर्मचारियों की उपस्तिथि में शांतिनाथ विधि-चैत्य में जलयात्रा सहित प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया। दादा जिनकुशलसूरि जी ने श्री शांतिनाथ आदि जिनेश्वरों की 150 प्रतिमाएं, जिनचन्द्रसूरि एवं जिनरत्नसूरि आदि की प्रतिमाएं तथा अनेक अधिष्ठायकों की मूर्तियां प्रतिष्ठित की। इसी दिन शत्रुंजय पर सेठ तेजपाल की तरफ से खरतरवसही में मानतुंग प्रासाद की नींव डाली गयी। कुशल गुरुदेव द्वारा प्रतिष्ठित श्री जिनरत्नसूरि जी की वह प्रतिमा शत्रुंजय गिरिराज पर खरतरवसही में विद्यमान है।
सम्वत 1380 में कुशल गुरुदेव ने सेठ तेजपाल-रुद्रपाल द्वारा शत्रुंजय पर निर्मापित नूतन मंदिर के योग्य, आदिश्वर भगवान की कपूर समान उज्जवल 27 अंगुल की प्रतिमा की अंजनशलाका की। साथ-साथ जिनप्रबोधसूरि, जिनचन्द्रसूरि, कपर्दि यक्ष, क्षेत्रपाल, अम्बिका आदि की मूर्तियां एवं शत्रुंजय के मंदिर के शिखर पर लगाने के लिए ध्वजदंड की प्रतिष्ठा भी करवाई।
दिल्ली निवासी श्रीमाल कुल के मुकुटमणि सेठ रयपति ने सम्वत 1380 में बादशाह गयासुद्दीन तुगलक के दरबार में प्रतिष्ठा प्राप्त अपने पुत्र धर्मसिंह के द्वारा प्रधानमंत्री नेबसाहब की सहायता से शाही फरमान निकलवाया। जिसका आशय यह था कि उनके द्वारा आयोजित तीर्थ यात्रा में प्रांतीय सरकारों द्वारा कोई बाधा न डाली जाये और आवश्यक सुविधाएं दी जाये।
प्रथम वैशाख वदी 7 को तीर्थ यात्रा संघ ने दिल्ली से प्रयाण किया। फलौदी पार्श्वनाथ पहुँचने पर सिंध और मारवाड़ के अनेक आमंत्रित संघ भी उसमें सम्मिलित हुए। तदनन्तर ज्येष्ठ वदी 14 को संघ पाटण पहुंचा। संघ के प्रमुख श्रावकों ने वहां पर विराजित कुशल गुरुदेव से अनुरोध किया कि “वर्षाकाल निकट है पर समस्त श्रीसंघ के मंगल हेतु आप कृपा करके इस यात्रा में पधारिये”। दादा जिनकुशलसूरि ने श्रीसंघ की आग्रह भरी विनंती को स्वीकार कर और अपने गुरु कलिकाल केवली जिनचन्द्रसूरि जी का ध्यान कर शत्रुंजय आदि तीर्थों की यात्रा के लिए संघ सहित प्रयाण किया।
धर्म-चक्रवर्तियों में इंद्र तुल्य युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि जी के सान्निध्य में, सेठ रयपति, सेठ तेजपाल, सेठ राजसिंह, ठक्कर फेरु आदि धनाढ्य श्रावकों से सुशोभित विशाल संघ शंखेश्वर जी की यात्रा करते हुए शत्रुंजय महातीर्थ पहुंचा। आषाढ़ वदी 6 के दिन तीर्थाधिपति आदिनाथ स्वामी के सन्मुख गुरुदेव ने नविन स्तोत्रों की रचना कर स्तुति की। सेठ रयपति ने प्रभु के नव अंगों की स्वर्ण मुद्रा से पूजा की। सूरिजी ने युगादिदेव के समक्ष दो साधुओं को दीक्षा प्रदान की।
आषाढ़ वदी 7 तथा 8 के दिन सेठ राजसिंह ने ऋषभदेव भगवान के मुख्य मंदिर में, निज की बनवाई हुई श्री नेमिनाथ आदि अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा श्री जिनकुशलसूरि जी के कर-कमलों से करवाई। इस अवसर पर जिनपतिसूरि, जिनेश्वरसूरि आदि गुरु मूर्तियों की भी प्रतिष्ठा की गई। सेठ रयपति ने समस्त शिल्पियों को सोने की हस्त-संकलिका एवं कम्बिका और रेशमी वस्त्र आदि देकर संतुष्ट किया। उसी दिन सेठ तेजपाल – रुद्रपाल ने, पाटण में पूर्व प्रतिष्ठित ऋषभदेव भगवान की प्रतिमा को अपने बनवाये हुए नविन मंदिर में कुशल गुरुदेव द्वारा स्थापित करवाया। मंदिर की प्रतिष्ठा भी गुरुदेव ने की।
लोगों का कहना है कि अपने शिष्य की लब्धि से प्रसन्न होकर श्री जिनचन्द्रसूरि महाराज भी स्वर्ग से इस महोत्सव को देखने आये थे। जो कितने ही उत्तम श्रावकों को दृष्टिगोचर हुए थे। समग्र लब्धिनिधान जिनकुशलसूरि जी ने आषाढ़ वदी 9 को सुखकीर्ति गणि को वाचनाचार्य पद प्रदान किया, हज़ारों श्रावक-श्राविकाओं ने मालारोपण किया तथा नविन बनाये हुए मंदिर पर ध्वजारोहण हुआ। और इस प्रकार शत्रुंजय महातीर्थ पर दस दिन तक बड़ा भारी समारोह रहा।
शत्रुंजय से प्रस्थान कर विशाल यात्री संघ जूनागढ़ पहुंचा। वहां के राज्याधिकारी एवं नगर के लोगों ने सम्मुख आकर पूज्य श्री का सम्मान किया। आषाढ़ सुदी 14 को संघ ने गिरनार का पहाड़ चढ़कर नेमिनाथ भगवान की यात्रा की। कुशल गुरुदेव ने नविन स्तुति स्तोत्र आदि रचकर भक्तिपूर्वक भगवान को वंदन किया। सेठ रयपति ने शत्रुंजय की भांति स्वर्ण मुद्राओं से भगवान की नवांग पूजा की। और चार दिन तक व्रतग्रहण, महापूजा, ध्वजादंडारोपण आदि महोत्सव कर संघ पुनः तलेटी पहुंचा। इस प्रकार अपने सारे मनोरथ पूर्ण होने पर परम यशस्वी सेठ रयपति ने तीन दिन तक स्वर्ण, वस्त्र आदि दान कर सौराष्ट्र देश के याचकों की मनोवांछा पूर्ण की और कुशल गुरुदेव की कीर्ति फैलाई।
निर्विघ्न यात्रा संपन्न कर संघ श्रावण सुदी 13 को पाटण पहुंचा। चारों दिशाओं से आये हुए संघ को उपदेश दान आदि से संतुष्ट करने हेतु, पूज्यश्री संघ सहित नगर के बाहर उद्यान में 15 दिन तक ठहरे। भाद्रपद वदी 11 के दिन बड़े भारी समारोह के साथ गुरुदेव का नगर प्रवेश हुआ।
सम्वत 1381 वैशाख वदी 5 को पाटण के शांतिनाथ विधि-चैत्य में गुरुदेव के कर-कमलों से विराट प्रतिष्ठा महोत्सव संपन्न हुआ। इसमें शत्रुंजय (बूल्हा वसही एवं अष्टापद प्रासाद), जालौर, देरावर, उच्चानगर के लिए अनेक जिनबिम्ब, गुरु मूर्तियाँ तथा अधिष्ठायक मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। इनमें पाषाण की 250 मूर्तियाँ और पित्तल की अगणित मूर्तियाँ थी।
भीमपल्ली के सुप्रसिद्ध श्रावक वीरदेव ने बादशाह गयासुद्दीन तुगलक से तीर्थ यात्रा हेतु फरमान प्राप्त कर, शत्रुंजय आदि तीर्थों के लिए पूज्यश्री की निश्रा में संघ नीकाला। 300 गाड़े, घोड़े, ऊँट, रथ आदि सहित, देश विदेश से आमंत्रित संघों से परिपूर्ण, विशाल चतुर्विध संघ ने ज्येष्ठ वदी 5 को भीमपल्ली से प्रयाण किया। संघ वायड, सैरिसा, सरखेज, आशापल्ली होते हुए खंभात पहुंचा। वहां पर कुशल गुरुदेव ने नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि जी द्वारा प्रगट किये हुए भगवान पार्श्वनाथ और अजितनाथ भगवान की नविन स्तुति स्तोत्र आदि रचकर वंदना की।
खंभात की यात्रा कर संघ शत्रुंजय पहुंचा। संघपति वीरदेव, सेठ तेजपाल तथा दिल्ली, जालौर आदि नगरों के धनाढ्य श्रावकों ने 10 दिन तक गिरिराज पर ध्वजारोपण, बड़ी पूजा, स्वामीवात्सल्य, इन्द्रपद महोत्सव आदि किये। तथा याचकों को वस्त्र-अलंकार आदि वितरण किये, जिससे जैन शासन की प्रभावना हुई। लौटते समय सैरिसा, शंखेश्वर, पाडल होते हुए श्रावण सुदी 11 को संघ भीमपल्ली पहुंचा।
सम्वत 1382 में भीमपल्ली में कुशल गुरुदेव की निश्रा में अनेक साधु-साध्वी की दीक्षाएँ, मालारोपण आदि महोत्सव सेठ वीरदेव ने करवाए। उस समय के गुरुदेव द्वारा दीक्षित विनयप्रभ मुनि आगे जाकर प्रौढ़ विद्वान् उपाध्याय विनयप्रभ हुए, जिनके द्वारा रचित महाप्रभावशाली “गौतम स्वामी का रास” आज सर्वत्र प्रसिद्ध है। उसी वर्ष साँचौर संघ के प्रबल अनुरोध से गुरुदेव ने वहां 15 दिन की स्थिरता कर शासन प्रभावना की।
क्रमशः कुशल गुरुदेव बाड़मेर पधारे और वहां के चातुर्मास में “चैत्यवंदन कुलक वृत्ति” नामक ग्रन्थ की रचना की। बाड़मेर से विहार कर दादा जिनकुशलसूरि अपने गुरु श्री जिनचन्द्रसूरि की जन्म एवं दीक्षा भूमि लवणखेटक पहुंचे। वहां पर सूरिजी ने अपने पूर्वज छाजेड़ गोत्रीय सेठ उद्धरण द्वारा निर्मित शांतिनाथ जिनालय के दर्शन किये।
सम्वत 1383 मिति फाल्गुन वदी 9 को जालौर में कुशल गुरुदेव के नेतृत्व में विराट महोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठा, दीक्षाएँ, व्रतग्रहण, मालारोपण आदि हुए। अपने उत्तम चरित्र से पूर्वाचार्यों का स्मरण करानेवाले, अनेक लब्धिनिधान, आचार्य श्री जिनकुशलसूरि जी के प्रभाव से यह महोत्सव, उस समय की विषम परिस्थितयों में भी, हिन्दू राज्यकाल की भांति बड़े ठाठ से हुआ। उसमें पाटण, जैसलमेर, सिवाणा, साँचौर, भीनमाल, उच्चापुर, देराउर आदि अनेक स्थानों के संघों के समक्ष 15 दिन पर्यन्त दीक्षार्थियों का आदर-सत्कार किया गया।
बिहार प्रान्त के राजगृह नगर निवासी मंत्रीदल वंश के ठाकुर अचलसिंह ने वैभारगिरि पर्वत पर चतुर्विंशति जिनालय का निर्माण कराया था। उस मंदिर के लिए मूलनायक महावीर स्वामी आदि अनेकों जिन प्रतिमाएं, गुरु मूर्तियां व अधिष्ठायक देव-देवियों की प्रतिष्ठा भी दादा जिनकुशलसूरि ने इस अवसर पर की थी।
महावीर स्वामी के चरण कमलों की स्पर्शना से पवित्र हुआ वैभारगिरि पर्वत, गौतम स्वामी आदि 11 गणधर एवं अनेक महा मुनियों की निर्वाण स्थली है। इसी पर्वत पर धन्ना मुनि एवं शालिभद्र मुनि अनशन कर देवलोक गए थे।
बीकानेर स्थित श्री सुपार्श्वनाथ भगवान के मंदिर में श्री पार्श्वनाथ प्रभु की एक धातु मूर्ति विद्यमान है। जिसके लेख अनुसार वह मूर्ति सम्वत 1383 मिति फाल्गुन वदी 9 के दिन श्री जिनकुशलसूरि जी द्वारा प्रतिष्ठित की गई थी।
जंगम युगप्रधान श्री जिनकुशलसूरि जी का लोकोत्तर प्रभाव दिनोदिन बढ़ने लगा था। सिंधु देश में उस समय मिथ्यात्व का प्रचार बहुत प्रबलता से था। सन्मार्ग प्रवर्तन व मिथ्यातत्व उन्मूलन में दादा गुरुदेव को सर्व प्रकार समर्थ जानकर, उच्चानगर एवं देवराजपुर के श्रावकों ने सूरिजी को सिंध प्रान्त पधारने की विनती की। भावी शासन प्रभावना जानकर पूज्यश्री ने जालौर से सिंध की लिए विहार किया।
प्रचंड ग्रीष्म ऋतू में कुशल गुरुदेव जैसलमेर होते हुए रेगिस्तान को पार कर देवराजपुर (देराउर) पहुंचे। आपके नगर प्रवेश के समय हज़ारों की संख्या में चारों वर्णों के हिन्दू व् मुस्लिम नगरवासी तथा सरकारी कर्मचारी आदि स्वागत के लिए आये। गुरुदेव ने वहां पर स्व-प्रतिष्ठित आदिनाथ प्रभु को वंदन किया। सम्वत 1384 का चातुर्मास गुरुदेव ने देराउर में किया।
सम्वत 1386 में दादा गुरुदेव क्यासपुर पधारे। पूर्वकाल में हिन्दू-सम्राट पृथ्वीराज चौहान के समय जैसा श्री जिनपतिसूरि जी का अजमेर नगर-प्रवेश हुआ था, क्यासपुर के नगरवासियों ने उसी प्रकार अभूतपूर्व रीति से श्री जिनकुशलसूरि जी का प्रवेशोत्सव कराया। सूरियों में चक्रवर्ती समान श्री जिनकुशलसूरि जी का तेज देखकर एवं उनकी वाणी से प्रभावित होकर म्लेच्छों ने भी श्रावकों की भांति गुरुदेव को विधिपूर्वक वंदना की। अनेकों कंवलागच्छ (उपकेशगच्छ) के श्रावक और विपक्षी लोग भी सूरिजी के उत्तम चरित्र और ज्ञान-ध्यान से प्रभावित होकर आपके परम भक्त हो गए।
उग्रविहारी कुशल गुरुदेव ने सिंध प्रदेश में देराउर, उच्चानगर, क्यासपुर, बहिरामपुर, मलिकपुर, खोजवाहन, राणुककोट आदि स्थानों में विचरण कर, श्रावक-श्राविकाओं को धर्म-मार्ग में एकनिष्ठ किया। और इस प्रकार जाग्रति की नयी लहर उत्पन्न हुई। लब्धि-संपन्न श्री जिनकुशलसूरि जी ने सिंधु-देश में रहकर अनेकों प्रतिष्ठाएं, दीक्षाएँ, पद-स्थापना, व्रतग्रहण, मालारोपण आदि कार्य बड़े विस्तार से किये।
सम्वत 1388 में मार्गशीर्ष सुदी 10 को दादा गुरुदेव ने श्री तरुणकीर्ति गणि को आचार्य पद देकर उनका नाम तरुणप्रभाचार्य प्रसिद्द किया तथा लब्धिनिधान गणि को उपाध्याय पद दिया। सम्वत 1384 से 1389 तक के चातुर्मास कुशल गुरुदेव ने सिंध प्रदेश में ही किये। अपने गुणों के सामर्थ्य से वहां पर फैले मिथ्यातत्व के साम्राज्य को हटाकर श्री जिनकुशलसूरि जी ने विधि-धर्म की जड़ों को मजबूत किया।
सम्वत 1389 के देराउर चातुर्मास के पश्चात अपने ज्ञान बल से स्वर्गवास निकट जानकर आप वहीँ ठहरे। माघ महीने के शुक्ल पक्ष में आपको प्रबल ज्वर और श्वास की व्याधि उत्पन्न हुई। उस समय अपना आयुशेष जानकर आपने तरुणप्रभाचार्य तथा लब्धिनिधानोपाध्याय को निर्दिष्ट किया कि 15 वर्ष की आयु वाले श्री पद्ममूर्ति को पट्टधर बनाना और उनका नाम जिनपद्मसूरि रखना। इसके पश्चात कुशल गुरुदेव अनशन, आराधना पूर्वक, मिथ्या-दुष्कृत कर, संलेखना सहित स्वर्ग सिधारे। गुरुदेव की अग्नि संस्कार की भूमि पर एक सुन्दर विशाल स्तूप का निर्माण रीहड़ गोत्रीय सेठ हरिपाल के पुत्रों ने करवाया।
प्राचीन तथा समकालीन समय में रचित “बृहद गुर्व्वावली” में कुशल गुरुदेव की स्वर्ग-तिथि फाल्गुन वदि 5 होने का उल्लेख है। लेकिन सम्वत 1830 में महोपाध्याय क्षमाकल्याण जी रचित “खरतरगच्छ पट्टावली” में फाल्गुन वदि अमावस्या का उल्लेख है। और इसके बाद की परंपरा में आज तक गुरुदेव का स्वर्गवास दिवस फाल्गुन वदि अमावस ही मनाया जाता है।
आप उच्च कोटि के विद्वान् थे। आपके द्वारा रचित संगिताक्षरों अथवा मंत्राक्षरों से गुम्फित पार्श्वनाथ भगवान की अनोखी स्तुति “द्रें द्रें कि धपमप” सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में बोली जाती है। आपने दादा श्री जिनदत्तसूरि जी कृत “चैत्यवंदन कुलक” नामक 27 गाथा की लघु कृति पर 4000 श्लोक परिमित टीका रचकर अपनी अप्रतिम प्रतिभा का परिचय दिया। पूज्यश्री ने प्राकृत में “श्री जिनचन्द्रसूरि चतुःसप्ततिका” तथा संस्कृत में “नरवर्म चरित्र” की रचना की। आपके द्वारा संस्कृत में रचे गए अनेक स्तोत्रों में से 9 स्तोत्र उपलब्ध है।
कुशल गुरुदेव की यशोकीर्ति का गुणगान करने वाली एवं अलौकिक प्रभाव को दर्शाती सैंकड़ो स्तुतियां, स्तोत्र, स्तवन, अष्टक, पद, छंद आदि उपलब्ध है। विद्वत शिरोमणि श्री तरुणप्रभाचार्य ने “श्री जिनकुशलसूरि चहुत्तरी” तथा सम्वत 1481 में उपाध्याय जयसागर ने “जिनकुशलसूरि चतुष्पदी-सप्तति” की रचना की। गुरुदेव के हज़ार से अधिक गुरु-मंदिर व चरण-पादुकाएं, भारत भर के जैन-अजैन श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है।
दादा जिनकुशलसूरि जी प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे। आपका अवतरण खरतरगच्छ के लिए एक अमूल्य वरदान है। गुरुदेव ने अपने जीवनकाल में 50 हज़ार से अधिक नूतन जैन बनाकर उन्हें ओसवाल जाती में सम्मिलित कर नए गोत्र स्थापित किये। कुशल गुरुदेव की असाधारण साधना से आकर्षित होकर, गोरे एवं काले भैरव आपकी आज्ञाधारक खरतरगच्छ अधिष्ठायक देव बने।
कुशल गुरुदेव के उपकार का वर्णन हज़ारों जिव्हाओं द्वारा भी नहीं किया जा सकता है।
श्री जिनकुशलसूरि जी ने अपनी विद्यमानता में जिस प्रकार संघ में कुशल वर्ताकर अपने नाम को सार्थक किया, उसी प्रकार स्वर्ग सिधारने के पश्चात भी भक्तजनों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सहाय करते आ रहे हैं। यहां पर उन कुछ घटनाओं का उल्लेख करते हैं जिनका ऐतिहासिक उल्लेख भी उपलब्ध है।
स्वर्गवास के पश्चात, भक्त की आराधना से प्रभावित होकर, कुशल गुरुदेव ने मालपुरा में सशरीर दर्शन दिए थे। वहीं पत्थर पर अंकित चरण विद्यमान है। और यह आपका प्राचीन स्थल माना जाता है।
बीकानेर के मंत्रीश्वर करमचंद के पूर्वज, मंत्री वरसिंह देराउर की यात्रा के लिए अति उत्कंठित होते हुए भी राजकीय कारणवश न जा सके। उनके मनोरथ पूर्ण करने के लिए गुरुदेव ने बीकानेर से चार कोस दूर नाल में सम्मुख आकर स्वप्न द्वारा दर्शन दिए। मंत्रीश्वर वरसिंह ने गुरु-दर्शन के स्मारक रूप स्तूप-मंदिर उसी स्थान पर निर्माण कराया। कहा जाता है कि यहाँ के चरण भी देराउर से आये हुए हैं।
कविवर समयसुंदर जी जब सिंध प्रान्त में विचर रहे थे, तब संघ सहित उच्च नगर जाते हुए मार्ग में आयी हुई पंच नदी पार करने के लिए नौका में बैठे। उस समय भयंकर तूफान आ जाने के कारण नौका खतरे में आ गयी। तब समयसुंदर जी ने अपने एक मात्र इष्ट कुशल गुरुदेव का ध्यान किया। फलस्वरूप तुरंत ही गुरुदेव की देवात्मा ने सानिध्य कर संकट दूर किया। इस घटना का उल्लेख उन्होने स्वयं एक स्तवन रचकर किया।
कविवर धरमवर्धन ने स्वरचित स्तवनों में डूबती हुई नौका तिराने का कई जगह उल्लेख किया है। इसी प्रकार जिनसुखसूरि जी एवं जिनरंगसूरि जी के सम्बन्ध में भी जल मार्ग में डूबती नौका को संकट से बचाने के उल्लेख मिलते हैं।
वर्षा के अभाव में वृष्टि के लिए कुशल गुरुदेव का स्मरण करने पर तत्काल वर्षा हुई – इसके सम्बन्ध में महोपाध्याय समयसुंदर जी ने “मांगो मेह बूठो तुरत” पद्य लिखकर सानिध्य स्वीकार किया। श्री जिनभक्तिसूरि जी कृत “श्री जिनकुशलसूरि स्तवन” में बीकानेर नरेश सुजाणसिंहजी की शत्रुओं से रक्षा करने का उल्लेख किया है। और भी कई चमत्कारों का उल्लेख महोपाध्याय रामलाल जी गणि द्वारा रचित “दादा साहब की पूजा व स्तवनादि” में मिलता है।
“मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रन्थ” में श्री भंवरलाल जी नाहटा लिखते हैं कि दादा गुरुदेव श्री जिनकुशलसूरि जी भुवनपति-महर्द्धिक कर्मेन्द्र नामक देव हैं।
भारत भर में आपके जितने चरण व मूर्तियां-दादावाडियां है, अन्य किसी की नहीं है। आपकी संघविस्तार की प्रवृत्ति भगवान महावीर के शासन में सदैव सुनहरे पृष्ठों पर चमकती रहेगी।
छत्रपति थांरे पाय नमे जी, सुरनर सारै सेव
ज्योति थांरी जग जागती जी, दुनिया में प्रत्यक्ष देव
क्रमांक 14 – दादा गुरुदेव जिनकुशलसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास