आचार्य जिनप्रभसूरि

आचार्य जिनपतिसूरि के पट्टधर श्री जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) के दो प्रमुख शिस्य थे – जिनसिंहसूरि तथा जिनप्रबोधसूरि। इन दो आचार्यों से खरतरगच्छ की दो शाखाएं अलग हो गयी। लघु खरतर शाखा के प्रवर्तक श्री जिनसिंहसूरि जी के शिष्य श्री जिनप्रभसूरि जी हुए।

श्री जिनप्रभसूरि जी बहुत बड़े शासन प्रभावक आचार्य हुए। आप जैसे अत्यंत प्रभावशाली आचार्य के संबंध में साधारणतया लोगों को बहुत कम जानकारी है। भारत की संस्कृति के महा संकटकाल के समय पूज्यश्री ने अपने असाधारण प्रभाव से जिनशासन की रक्षा एवं उन्नति की। सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ को आपने प्रतिबोध दिया था। आप “विविध तीर्थ कल्प” एवं “विधि मार्ग प्रपा” जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों के रचयिता हैं।

एक समय श्री जिनसिंहसूरि जी ने अपने गुरु जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) द्वारा दिए हुए पद्मावती मन्त्र की छः मास के आयम्बिल तप द्वारा साधना की। पद्मावती देवी के प्रगट होने पर जिनसिंहसूरि जी ने प्रश्न किया की उनके पट्ट योग्य शिष्य कौन होगा। तब देवी ने कहा – “सोहिलवाड़ी निवासी श्रीमाल जाती के ताम्बी गोत्रीय श्रावक रत्नपाल की पत्नी खेतलदेवी के पुत्र सुभटपाल आपके पट्ट के प्रभावक सूरि होंगे”।

देवी के संकेत अनुसार श्री जिनसिंहसूरि जी ने उस ग्राम में जाकर सब शुभ लक्षणों से संपन्न सुविनित सुभटपाल को दीक्षा दी। और सम्वत 1341 में किढ़वाना नगर में आचार्य पद देकर अपने पट्ट पर स्थापित कर जिनप्रभसूरि नाम घोषित किया। गुरुकृपा से पद्मावती देवी श्री जिनप्रभसूरि जी को भी प्रत्यक्ष थी। देवी के संकेत अनुसार आपने धर्म प्रचार तथा उन्नति के लिए दिल्ली प्रान्त में विहार किया।

भारत के मुसलमान बादशाहों के दरबार में सम्मान प्राप्त करनेवाले एवं उसके द्वारा शासन प्रभावना के कार्य करने वाले संभवतः सबसे पहले आचार्य जिनप्रभसूरि ही हुए।

सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ के आव्हान से सम्वत 1385 पौष सुदी 8 के दिन आचार्य जिनप्रभसूरि जी उनसे मिले। आपकी अद्भुत प्रतिभा और अलौकिक पांडित्य से प्रभावित होकर सुल्तान ने आपका राजसभा में बहुत आदर किया और हाथी, घोड़े, राज, धन आदि भेंट करने लगा। साध्वाचार के विपरीत होने से आपने कोई वस्तु ग्रहण नहीं की परन्तु सुल्तान के विशेष अनुरोध से वस्त्र-कम्बल लिए। तुग़लक़ ने बड़े महोत्सव के साथ जिनप्रभसूरि जी तथा उनके शिष्य जिनदेवसूरि जी को हाथी पर बैठाकर पौषधशाला पहुँचाया। गुरुदेव ने इसे ‘राजाभियोग’ से स्वीकार किया।

‘विविध तीर्थ कल्प’ ग्रन्थ के अनुसार जिनपतिसूरि जी ने सम्वत 1233 में कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। इस प्रतिमा को कालांतर में म्लेच्छों ने मुहम्मद तुग़लक़ के शाही खजाने में रख दिया था। जिनप्रभसूरि जी ने कन्नाणा की महावीर प्रतिमा को सुल्तान से प्राप्त कर दिल्ली के जैन मंदिर में स्थापित कराया।

जिनप्रभसूरि जी के शिष्य जिनदेवसूरि जी के प्रभाव से तुग़लक़ ने एक बस्ती जैन संघ के निवास के लिए दी जहां 400 जैन परिवार रहने लगे। तदनन्तर सुल्तान ने शाही मुहर का फरमान देकर नविन उपाश्रय का निर्माण कराया। यहीं के मंदिर में कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा विराजमान की गई। जो 17वीं शताब्दी तक विद्यमान थी। गुरुदेव की प्रेरणा से मुहम्मद तुग़लक़ ने समय-समय पर शत्रुंजय, गिरनार, फलौदी आदि तीर्थों की रक्षा के लिए फरमान निकाले।

आप बड़े चमत्कारी और प्रभावक थे। यहां सिर्फ कुछ घटनाओं का उल्लेख करते हैं।

  • बादशाह की बेगम का व्यंतर उपद्रव दूर करना
  • आकाश से टोपी को ओघे द्वारा नीचे लाना
  • विजय मन्त्र का चमत्कार
  • बादशाह के साथ वटवृक्ष का चलाना
  • सम्राट के साथ शत्रुंजय यात्रा के समय रायण वृक्ष से दूध बरसाना
  • कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा के मुख से बादशाह के लिए आशीर्वचन बुलवाना

आचार्य जिनप्रभसूरि जी ने देवगिरि (महाराष्ट्र में दौलताबाद) में तीन वर्ष की स्थिरता की। वहां पर तुर्कों के द्वारा जिनमंदिरों का विध्वंस होने से रोका। देवगिरि में ही उद्भट ऐसे बहुत से वादियों को शास्त्रार्थ में परास्त किया।

शत्रुंजय उद्धारक समरासाह ने संघ सहित श्री जिनप्रभसूरि जी के साथ मथुरा और हस्तिनापुर की यात्रा की थी। पूज्यश्री ने प्राचीन मथुरा तीर्थ का उद्धार किया था। 

कहा जाता है कि जिनप्रभसूरि जी प्रतिदिन एकाध नवीन स्तोत्र की रचना करने के पश्चात आहार ग्रहण करते थे। इसके फलस्वरूप आपने 700 जितने विशाल स्तोत्र-साहित्य की रचना की थी। फारसी भाषा में स्तोत्र बनानेवाले शायद आप ही सबसे पहले जैनाचार्य थे।  आपके द्वारा रचित “विविध तीर्थ कल्प” नामक ग्रन्थ जैन साहित्य की एक विशिष्ट कृति है। ऐतिहासिक एवं भौगोलिक दोनों दृष्टि से इस ग्रन्थ का बहुत महत्व है। चौदहवीं शताब्दी में जैन धर्म के जितने पुरातन और विद्यमान तीर्थ स्थान थे उनके सम्बन्ध में यह एक मार्गदर्शक पुस्तक है। आपने 25-30 वर्ष तक गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, बिहार, अवध, पंजाब आदि भारत के अनेक प्रान्तों में यात्रा कर पुरातन स्थानों के बारें में जानकारी को इस ग्रन्थ में लिपिबद्ध किया। समग्र भारतीय साहित्य में इस प्रकार का कोई दूसरा ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं हुआ है।

आपने “विधि मार्ग प्रपा” नामक ग्रन्थ में श्रमण तथा श्रावक जीवन से सम्बंधित शास्त्र-सम्मत आचार-चर्या को सम्पूर्ण रूप से समेट कर भविष्य के लिए प्रामाणिक विधि-विधान उपलब्ध कराने का महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित किया। श्वेताम्बर आम्नाय के लगभग सभी गच्छ अपने विधि-विधान मूलतः इसी ग्रन्थ के आधार पर करते रहे हैं। इसकी रचना आपने सम्वत 1363 के अयोध्या चातुर्मास में की थी।

सम्वत 1364 में आपने वैभारगिरि की यात्रा कर, कल्पसूत्र पर “संदेह-विषौषधि” नामक वृत्ति बनाई। भद्रबाहु स्वामी रचित कल्पसूत्र पर यह सर्वप्रथम टीका थी। आपकी मन्त्र-तंत्र व विद्याओं सम्बन्धी रचनाओं में रहस्यकल्पद्रुम, ह्रींकार कल्प, सूरिमंत्र कल्प एवं चूलिका उल्लेखनीय है। आपने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों पर टीकाएँ लिखी।

एक ही व्यक्ति द्वारा इतने सुन्दर और वैशिष्ट्यपूर्ण स्तोत्रों का निर्माण करने की बात अन्य नहीं पाई जाती। आचार्य जिनप्रभसूरि जी ने अन्य गच्छीय विद्वानों को भी शास्त्रीय अध्ययन कराया और उन्हें ग्रन्थ रचने में सहायता प्रदान की। इन सब बातों से आपकी उदार प्रकृति की झांकी मिलती है।

सम्वत 1503 में रचित “उपदेश सप्ततिका” में श्री जिनप्रभसूरि जी तथा तपागच्छीय श्री सोमतिलकसूरि जी के मिलन का एक प्रसंग मिलता है। एक बार जिनप्रभसूरि जी और सोमतिलकसूरि जी पाटण के पास एक ही गाँव में विराजमान थे। जब जिनप्रभसूरि जी उनसे मिलने गए तब सोमतिलकसूरि जी ने खड़े होकर उनका स्वागत किया और कहा कि “आप शासनप्रभावक आचार्य भगवंत हो। आपके प्रभाव से आज जैन शासन जयवंत है”। तब जिनप्रभसूरि जी ने विनम्रता से उत्तर दिया कि “सुल्तान के साथ रहने एवं राजसभा में आने-जाने के कारण मैं सम्यक चारित्र का पालन नहीं कर पाता। परन्तु आप निर्मल चारित्रवान हो।” यह प्रसंग आपकी महानता का परिचायक है।

मुसलमान बादशाहों पर इतना अधिक प्रभाव डालने वालों में आप सर्वप्रथम हैं। आपने सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ को प्रभावित कर जैन तीर्थों व मंदिरों की सुरक्षा की। इस प्रकार श्री जिनप्रभसूरि जी ने जैन शासन की महान प्रभावना करके एक विशिष्ट आदर्श प्रस्तुत किया। जिसे खरतरगच्छ एवं जैन संघ कभी भुला नहीं सकता।

श्री जिनप्रभसूरि जी की एक प्रतिमा शत्रुंजय महातीर्थ की खरतर वसही में विराजमान है।


क्रमांक 15 – आचार्य जिनप्रभसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास

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