आचार्य जिनप्रबोधसूरि

आचार्य जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) के पट्ट पर जिनप्रबोधसूरि हुए। आप बड़े भारी विद्वान् और प्रभावक थे। विवेकसमुद्र गणि रचित “श्री जिनप्रबोधसूरि चतुः सप्ततिका” के अनुसार आपका जन्म गुजरात के थारापद्र नगर में ओसवाल साहू खींवड गोत्रीय श्रीचंद और उनकी पत्नी सिरिया देवी के यहाँ सम्वत 1285 में हुआ। आपका जन्म नाम मोहन था। सम्वत 1297 में आचार्य जिनेश्वरसूरि ने आपको दीक्षित कर आपका नाम प्रबोधमूर्ति रखा। सम्वत 1331 में स्वयं जिनेश्वरसूरि ने आपको अपने पट्ट पर विराजमान किया।

आपके कर-कमलों से जालौर, बाड़मेर, जैसलमेर, चित्तौड़, सुवर्णगिरि, भीमपल्ली, बीजापुर आदि नगरों में अनेक दीक्षाएँ, पदारोहण, जिन प्रतिमाओं तथा गुरु मूर्तियों की स्थापना, ध्वजारोहण आदि कार्य हुए। सम्वत 1332 में आपने सुवर्णगिरि में जिनेश्वरसूरि के स्तूप में उनकी मूर्ती स्थापित की। आपके द्वारा प्रतिष्ठित दादा जिनदत्तसूरि की मूर्ति पाटण के मंदिर में विद्यमान है। सम्वत 1333 में आचार्यश्री ने संघ सहित जालौर से शत्रुंजय, गिरनार, तारंगा, स्तंभनक, भृगुकच्छ आदि तीर्थों की यात्रा की।

सम्वत 1336 में पालनपुर में जिनप्रबोधसूरि ने अपने पिता सेठ श्रीचंद का अंत समय जानकार उन्हें दीक्षित किया और उनका दीक्षा नाम श्रीकलश रखा। श्रीकलश मुनि 17 दिन का संयम पाल कर स्वर्गवासी हुए। यह घटना युगप्रधान आर्यरक्षितसूरि द्वारा अपने पिता पुरोहित सोमदेव को अंत समय में दीक्षा देकर संयमधारी बनाने की याद दिलाती है।

सम्वत 1337 में पूज्यश्री की निश्रा में गुजरात के बीजापुर नगर में जलानयन महोत्सव अभूतपूर्व हुआ। जिसके जुलूस में महामंत्री विन्ध्यादित्य, ठाकुर उदयदेव आदि राज्य के कर्त्ता भी सम्मिलित हुए। इस उत्सव के समय कृष्ण नाम के पंडित ने श्रीपंजिकाप्रबोध, श्रीवृत्तप्रबोध, श्रीबौद्धाधिकारविवरण आदि पूज्यश्री रचित ग्रंथों पर अनेक अवधान करके दिखलाये। सम्वत 1340 में नगर प्रवेश के समय जैसलमेर नरेश कर्णदेव पूज्यश्री के स्वागत के लिए सम्मुख पधारे थे।

“कातन्त्र व्याकरण” पर जिनप्रबोधसूरि ने “कातन्त्र दुर्गप्रबोध” टीका की रचना की। विवेकसमुद्र गणि रचित “पुण्यसार कथा” का संशोधन आपने किया था। सम्वत 1341 वैशाख सुदी 11 के दिन आपका स्वर्गवास जालौर में हुआ।


क्रमांक 12 – आचार्य जिनप्रबोधसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – प. पू. मुनि श्री चंद्रप्रभसागरजी म. सा. रचित खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास

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