आचार्य कीर्तिरत्नसूरि

नाकोड़ा तीर्थ और नाकोड़ा भैरव के संस्थापक, नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रतिमा के पुनर्स्थापक, खरतरगच्छ विभूषण श्री कीर्तिरत्नसूरि जी अपने समय के प्रख्यात विद्वान् और प्रभावशाली आचार्य थे।

सम्वत 1449 में कोरटा नगर में आपका जन्म शंखवालेचा (संखलेचा) गोत्रीय पिता देपमल एवं माता देवलदे के यहां हुआ। आपका जन्म नाम देल्हा कुमार था। 13 वर्ष की आयु में आपका विवाह होना निश्चित हुआ। देल्हा कुमार की बारात महेवा (मेवानगर) से निकली, किन्तु मार्ग में आपके सेवक का दुखद निधन हो गया। यह देखकर देल्हा कुमार को वैराग्य उत्पन्न हुआ। सम्वत 1463 में महेवा में श्री जिनवर्द्धनसूरि जी के हस्ते आपकी दीक्षा हुई और आपका नाम कीर्तिराज रखा गया।

श्री जिनवर्द्धनसूरि जी ही आपके साहित्य गुरु थे। अल्प समय में ही पूज्यश्री विभिन्न शास्त्रों में निपुण हो गए। सम्वत 1470 में पाटण में श्री जिनवर्द्धनसूरि जी ने आपको वाचक पद प्रदान किया। सम्वत 1480 में महेवा में श्री जिनभद्रसूरि जी ने आपको उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया।

उपाध्याय कीर्तिराज संस्कृत साहित्य के प्रौढ़ विद्वान् और प्रतिभा संपन्न कवि थे। आपके द्वारा रचित नेमिनाथ महाकाव्य, जैसलमेर की लक्ष्मणविहार प्रशस्ति, अजितनाथ जयमाला चित्र स्तोत्र आदि अनेक संस्कृत, प्राकृत व मरुगुर्जर भाषा की कृतियां प्राप्त है।

डॉ सत्यव्रत के अनुसार – “कवि चक्रवर्ती” कीर्तिराज उपाध्याय द्वारा रचित नेमिनाथ महाकाव्य को जैन संस्कृत महाकाव्यों में गौरवमय पद प्राप्त है। पांडित्य-प्रदर्शन तथा बौद्धिक-विलास के उस युग में नेमिनाथ महाकाव्य जैसी प्रसादपूर्ण रचना करने में सफल होना कीर्तिराज उपाध्याय की बहुत बड़ी उपलब्धि है।

आपके द्वारा रचित शांतिनाथ स्तुति भी उल्लेखनीय है। इसमें भोजन सामग्री एवं मुखशुद्धि के शब्दों का प्रयोग करते हुए भिन्न अर्थ किए गए हैं।

पूज्यश्री की विद्वता से प्रभावित होकर आचार्य जिनभद्रसूरि जी ने सम्वत 1497 में जैसलमेर में आचार्य पद प्रदान कर कीर्तिरत्नसूरि नाम रखा।

सम्वत 1512 में नाकोड़ा ग्राम के शुष्क तालाब से अति प्राचीन पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति श्री कीर्तिरत्नसूरि जी के करकमलों से पुनः प्रगट हुई। इस चमत्कारी मूर्ति को आपने वीरमपुर के जिनालय में स्वहस्त से प्रतिष्ठित किया और तीर्थरक्षक अधिष्ठायक देव के रूप में नाकोड़ा भैरव की स्थापना की।

सम्वत 1514 में श्री कीर्तिरत्नसूरि जी के सांसारिक पक्ष के केल्हा आदि भाइयों ने शत्रुंजय महातीर्थ की यात्रार्थ विशाल संघ निकाला, जिसमें पूज्यश्री आदि अनेकों आचार्य सम्मिलित थे। सम्वत 1518 में केल्हा के ही पुत्र मालाशाह ने वीरमपुर में शांतिनाथ भगवान् का विशाल मंदिर बनवाया। जिसकी प्रतिष्ठा के समय श्री जिनचन्द्रसूरि जी के साथ श्री कीर्तिरत्नसूरि जी भी उपस्थित थे।

कीर्तिरत्नसूरि जी ने उत्तर प्रदेश आदि पूर्व देश के प्रांतों में विचरण कर अनेकों को प्रतिबोध देकर नविन श्रावक बनाये थे। आचार्यश्री के स्वहस्त दीक्षित 51 शिष्य थे। जिनमें उपाध्याय लावण्यशील, वाचक क्षांतिरत्न गणि, वाचक धर्मधीर गणि आदि प्रमुख थे। आपकी शिष्य परंपरा बहुत विशाल रही, जिसमें 20 वीं शताब्दी के गीतार्थ आचार्य शिरोमणि श्री जिनकृपाचंद्रसूरि जी हुए।

सम्वत 1525 वैशाख वदि 5 को वीरमपुर में कई दिन के अनशनपूर्वक श्री कीर्तिरत्नसूरि जी का स्वर्गवास हुआ। जिस रात्रि में आचार्यश्री का स्वर्गवास हुआ उसी रात्रि में जिनमंदिर के द्वार स्वतः बंद हो गए और आपके पुण्य-प्रभाव से मंदिर में स्वतः ही दीप पंक्तियाँ प्रज्ज्वलित हो गयी।

जिस टेकरी पर आपका दाह-संस्कार किया गया, वहां पर मालाशाह आदि परिवार वालों ने स्तूप बनवाकर श्री जिनभद्रसूरि के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि जी से प्रतिष्ठा करवाई। वह स्थान आज नाकोड़ा तीर्थ में श्री कीर्तिरत्नसूरि दादावाड़ी के नाम से प्रसिद्ध है। सम्वत 1536 में श्री कीर्तिरत्नसूरि जी की भतीजी रोहिणी ने आपकी प्रतिमा वहां विराजमान की।

तपागच्छीय साध्वीवर्या सुंदरश्रीजी को भैरूजी का इष्ट था। कहा जाता है कि लगभग 100 वर्ष पूर्व भैरूजी ने सुंदरश्रीजी को स्वप्न में कहा – “कीर्तिरत्नसूरि जी की गुरुमूर्ति को वहां से लाकर मेरे सामने विराजमान कराओ।” और इस प्रकार पूज्यश्री की वह मूर्ती नाकोड़ा पार्श्वनाथ मंदिर में भैरूजी के सन्मुख पुनः स्थापित की गई। खरतरगच्छ विभूषण आचार्यश्री की स्मृति में जोधपुर, राजनगर, आबू, बीकानेर आदि नगरों में भी छत्री बनवाकर चरण स्थापित किये गए थे।


क्रमांक 23 – आचार्य कीर्तिरत्नसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास

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