आचार्य जिनचन्द्रसूरि

महान प्रभावक आचार्य जिनभद्रसूरि जी के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि जी हुए। आपका जन्म सम्वत 1487 में जैसलमेर निवासी चम्म गोत्रीय साह वच्छराज और माता वाल्हा देवी के यहां हुआ। आपका जन्म नाम करणा था।

सम्वत 1492 में आपकी दीक्षा हुई और दीक्षा नाम कनकध्वज रखा गया। सम्वत 1515 ज्येष्ठ वदि 2 के दिन, कुम्भलमेरु निवासी कूकड-चोपड़ा गोत्रीय साह समरसिंह कृत नंदी-महोत्सव में, नाकोड़ा तीर्थ तथा नाकोड़ा भैरव के संस्थापक श्री कीर्तिरत्नसूरि जी ने आचार्य पद प्रदान कर जिनचन्द्रसूरि नाम रखा और गच्छनायक के पद पर प्रतिष्ठित किया।

सम्वत 1515 में उपाध्याय जयसागर जी के मण्डलिक आदि भ्राताओं ने अर्बुदाचल (आबू) पर खरतर-वसही संज्ञक तिमंजिले नवफणा पार्श्वनाथ जिनालय का निर्माण कराया, जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य जिनचन्द्रसूरि जी ने की। आचार्य कीर्तिरत्नसूरि जी के शिष्य कल्याणचंद्र गणि द्वारा रचित आबू के नवफणा पार्श्वनाथ का स्तवन उल्लेखनीय है। इस स्तोत्र में 8 भाषाओं में रचित श्लोकों द्वारा नवफणा पार्श्वनाथ की स्तवना की गई है।

पूज्यश्री ने सम्वत 1518 में ज्येष्ठ वदि 5 को वीरमपुर में शांतिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा की। सम्वत 1518 में ही जैसलमेर स्थित संभवनाथ जिनालय में, मंदिर निर्माता चोपड़ा परिवार ने शत्रुंजय तथा गिरनार पट्टिकाएं निर्माण करवाकर आपके कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवाई। सम्वत 1525 में नाकोड़ा तीर्थ में आचार्य श्री कीर्तिरत्नसूरि जी के स्तूप की प्रतिष्ठा आपके द्वारा हुई।

पूज्यश्री ने साहित्य सर्जक विद्वान् उपाध्याय क्षेमराज जी को दीक्षित किया था तथा धर्मरत्नसूरि, गुणरत्नसूरि, जिनसमुद्रसूरि आदि अनेक मुनियों को आचार्य पद प्रदान किया था। आपने सिंध, सौराष्ट्र, मालव आदि देशों में विचरण कर धर्म प्रभावना की। आपका स्वर्गवास सम्वत 1537 में जैसलमेर में हुआ।


क्रमांक 24 – आचार्य जिनचन्द्रसूरि
संकलन – सरला बोथरा
आधार – स्व. महोपाध्याय विनयसागरजी रचित खरतरगच्छ का बृहद इतिहास

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